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आजादी के उपासक थे मौलवी अहमद उल्ला शाह

शमिन्दर सिंह ‘‘शम्मी’’, शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश

आजादी के इस महान योद्धा का जन्म 19वीं शताब्दी के दूसरे दशक में हुआ था। बचपन में आपको सैयद अली खान उर्फ जियाउद्दीन या दिलावर जंग के नाम से भी जाना जाता था। पिता मुहम्मद अली खान मद्रास के चिनापट्टम के नवाब थे। आपकी शिक्षा दीक्षा पूर्णत: राजसी ठाठ बाठ के साथ हुई थी। पढ़ाई के साथ - साथ इस्लाम व शस्त्र चलाने की शिक्षा भी ग्रहण की। उस समय में प्रचालित अंग्रेजी शिक्षा और रहन सहन भी सीखा।

15 जून शहादत दिवस   


 मौलवी अहमद उल्ला शाह
 मौलवी अहमद उल्ला शाह
यह वह समय था जब हिन्दू मुस्लिम दोनो ही अंग्रेजी हुकुमत के जुल्मो सितम से परेशान थे और उनके खिलाफ उठ खड़े होने का आव्हान करते थे। तभी अहमद उल्लाशाह अपने सैकड़ो मुरीदों के साथ आगरा पहुंचे, जहां आपने एक आलीशान भवन किराए पर लिया और उसके दरवाजे पर एक बड़ा सा नक्कारा लगवाया। जिसे दिनभर में पांच बार बजाया जाता था। अहमद उल्ला शाह अपने गुरू के अनुसार कव्वालियों की मजलिस करते और उसी दौरान अंग्रेजो के दमन के खिलाफ जेहाद को छेड़ने का भी एलान करते। इसी के साथ आप ध्यानयोग की मुद्रा में रहते, इसी योग के सहारे काफी देर तक सांस रोक ध्यान करना भी शुरू कर दिया। ऐसे ही एक दिन ध्यान योग के बाद आपने लोगो से भविष्यवाणी की कि आज की तारीख से छह माह के अंदर ब्रिटिश सरकार का तख्ता पलटने की तैयारी शुरू हो जाएगी। इसकी चर्चा अग्रेजो के पास तक पहुंची लेकिन वह कुछ न कर सकी।
बाबरी मस्जिद का विवाद जब अंग्रेजी गुप्तचर विभाग द्वारा खड़ा किया गया, तो मौलवी साहब ने उसकी वास्तविकता बताकर उसका भण्डा फोड़ किया गया। जिस पर उन्हें कारागार में ठूंस दिया गया। यह बात जंगल में लगी आग की तरह पूरे फैजाबाद तथा आस पास के क्षेत्रों में व जनपदों में फैल गई और वहां की आम जनता अपने यहां के सामन्तो की सेना के साथ कंधे से कंधा मिलाकर फैजाबाद पहुंची और फैजाबाद कारागार तोड़कर मौलाना साहब के साथ अन्य सभी कैदियों को भी कारागार से बाहर निकाल लिया। जब वह बाहर आए तो पैदल सेना के अतिरिक्त 12 सौ घुड़सवार उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उन सभी ने मौलवी साहब का जयकारा लगाकर स्वागत किया और कहा कि हम सभी आपके साथ हैं और आपके आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उस समय मौलवी साहब ने छोटा सा किन्तु जोशीला भाषण देते हुए फिरंगी शासन को उखाड़ फें कने की बात कही और लखनऊ की ओर कूच कर दिया।
कई दिनों की यात्रा के बाद लखनऊ पहुंचे और घास मंडी में पड़ाव डाला। यहां पर इनके प्रवचन सुनने भारी भीड़ जमा होती थी। उनकी इस कारगुजारी से फिरंगी शासन भी चिन्ता में था, पर उनसे सीधा टकराव करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। प्रवचन के साथ ही क्रांति का संदेश कमल का फूल और चपाती भी गांव - गांव, घर - घर पहुंचाई जा रही थी। मौलवी साहब ने लखनऊ की बेगम हजरत महल से सम्पर्क करके क्रांतिकारियों का साथ देने के लिए सहमत कर लिया था लेकिन बाद में उनके निकट सहयोगी रहे राजा देव सिंह की सलाह पर बेगम अपने वायदे से मुकर गई और क्रांतिकारियों का साथ देने से मना कर दिया।
इसके बाद मौलवी कुछ दिन के लिए फिर ग्वालियर चले गए जहां से फिर लखनऊ की ओर रूख किया और नवबंर, 1856 पहुंचे। इस वाकए को लखनऊ से प्रकाशित एक साप्ताहिक अखबार ‘‘तिलिस्म’’ ने अपने 21 नवम्बर 1856 के अंक में प्रकाशित किया था। जिसमें अखबार ने लिखा था ‘‘एक व्यक्ति जिसे अहमद उल्ला शाह के नाम से जाना जाता है, लखनऊ आया है, जिसकी वेशभूषा तो फकीरों की तरह है, लेकिन उसके साथ जो सामान है वह देखने से राजसी लगता है। भारी भीड़ उसके दर्शनों और उसके प्रवचनों को सुनने के लिए आ रही है।’’
अंग्रेज अधिकारी जनरल सीटन ने इस बारे में सरकार को अवगत कराया कि मेरे विचार में इसमें कोई संदेह नहीं कि इस व्यक्ति का ही पूरे षड़यंत्र का दिमाग और हाथ है। सीटन तो चपाती और कमल बांटने की योजना में भी मौलवी अहमद उल्ला शाह का हाथ देखता था।
लखनऊ के नवाबों की बेगमों को भी उनके बारे में सूचना मिलती रहती थी, जिसकी चर्चा वे नवाब वाजिद अली शाह के साथ गई बेगमों से गाहे - बगाहे करती रहती थीं। शैदा बेगम ने उनके बारे में जाने आलम को एक खत में लिखा है ‘‘सुना है एक सूफी अहमदउल्ला शाह आए हुए हैं। नवाब चीनाटीन के साहबजादे कहलाते हैं। आगरे से आए हैं ये भी सुना है कि उनके हजारहा मुरीद हैं और वो पालकी में निकलते हैं। आगे डंका बजता होता है पीछे अहदहां बड़ा होता है।’’
वहीं सरफराज बेगम ने जाने जां बेगम को खत लिखा कि ‘‘...... यों समझिए कि फैजाबाद से आकर मौलवी साहब ने लूट - मार कम की है और जगह - जगह अपने चौकीदार पहरे पर बैठा दिए हैं ....... मौलवी अहमद उल्ला शाह ने बड़ी बहादुरी की। बेलीगारद फाटक तक पहुंच गए मगर कोई साथी उनके साथ न था, बेचारे जख्मी होकर लौट आए’’
उनके बारे में जनरल सर थामसन सीटन ने कहा था ‘‘मौलवी अहमद उल्ला शाह अदम्य साहसी और कठोर दृढ़ संकल्प वाले व्यक्ति थे, वह विद्रोहियों में सर्वश्रेष्ठ थे।’’ अहमद उल्ला शाह ने अपना सारा ज्ञान, जीवन देश की सेवा में लगा दिया।
इसी बीच स्वतंत्रता संग्राम प्रारम्भ हो गया और मौलवी साहब क्रांतिकारियों की अगुआई करते हुए कई स्थानों पर अंग्रेजी सेनाओं से टकराए और उन्हें मुंहतोड़ जबाब दिए।
30 जून को हुई चिनहट की लड़ाई में, जिसमें अंगे्रज बुरी तरह पराजित हुए थे, उन्होने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 2 जुलाई को उन्होने 300 लोगों को साथ में लेकर बेलीगारद पर सामने से हमला किया। 14 नवम्बर को उन्होंने ला-मार्टिनियर पर मोर्चा संभाला, और 16 नवम्बर को नवाब मुबारिजुद्दौला के घर हमला किया। 23 सितम्बर को जब अंग्रेज सेना आलम बाग पहुंची तो मौलवी साहब ने तुरंत घोषणा की ‘‘अगर दुश्मन कामयाब हुआ तो वह पूरी तरह तबाह कर देगा। दिल्ली में अपनी जीत के बाद फिरंगी काफिरों ने एक भी आदमजात को जिंदा नहीं छोड़ा, बच्चों, कमजोरों और बूढ़ों तक को तलवारों से काट डाला। याद रखो! अगर दुश्मन शहर में आ जाता है तो तुम्हारा भी वही हश्र होगा। तुम्हारे बच्चे जिबह किए जाऐंगे, तुम्हारी औरतें बेइज्जत की जाएंगी।’’
बाद में उन्होंने शाहजहांपुर को अपना केन्द्र बनाया, जहां मौलवी के सिपाहियों और अंगरेज फौजों के बीच जर्बदस्त लड़ाई हुई। मौलवी के सेना के पास साधन न थे लेकिन सभी तरह के लोग उनके साथ थे। यहां तक की दिल्ली के शहजादे फीरोज शाह और बेगम की फौजे भी उनके साथ थीं। यहां उनका साथ तहसील तिलहर के ग्राम खेड़ा बझेड़ा निवासी सरनाम सिंह और तहसील पुवायां के खुटार के राजा के छोटे भाई लाखन शाह, नवाब कादिर अली खां, नवाब निजाम अली खां आदि के साथ ही जनपद लखीमपुर खीरी की तहसील मोहम्मदी, कस्बा मितौली के राजा लोने सिंह, हरदोई जनपद के रूइया नरेश नरपत सिंह तथा वैश्य पाण्डेय के राणा बेनी माधव आदि सहयोगी बने और कई मोर्चों पर फिरंगी सेना पर विजय हासिल की।
मौलवी साहब को कई नामों से जाना जाता है जैसे ‘‘डंका शाह’’ यह नाम इसलिए पड़ा कि उनके आगे डंका (ढोल) बजा करता था। इनका एक और नाम बोतल तराश भी था। यह नाम इसलिए पडा कि वह बोतल तराशने की कला में माहिर थे। इसकी जानकारी उनकी तलवार से हुई जो उनकी शहादत के बाद पुवायां के राजा अजय वर्मा के पास थी जिस पर एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार सुनहरे अक्षरों में उर्दू लिपि में लिखा था ‘‘बोतल तराश मौलवी अहमद उल्ला शाह’’।
मौलवी अहमद उल्ला शाह ने अपना अंतिम मोर्चा शाहजहांपुर में लगाया। आज कल उस स्थान पर गांधी फैज-ए-आम डिग्री कालेज है। इसका प्रबन्ध नवाब कादिर खां को सौंपा गया था, उन्होंने बड़े परिश्रम और इमानदारी और लगन के साथ समुचित व्यवस्था की। इस मोर्चे में दिल्ली के शहजादा सलीम, बिठूर के नानाराव, बेगम हजरत महल, तात्यांटोपे, धू-धू पंत आदि ने भी भागीदारी की।
इसी बीच क्रांतिकारियों को ज्ञात हुआ कि नगर के बीच बनी भव्य कोठी के मालिक दो भाई क्रांतिकारी गतिविधियों की सूचना अंग्रेजो तक पहुंचाते है। इस बात की पुष्टि हो जाने पर मौलवी साहब ने इस कोठी को जलाने का आदेश दिया, जिस पर इस कोठी को क्रांतिकारियों ने आग के हवाले कर दिया। यह कोठी आज भी जली कोठी के नाम से जानी जाती है।
एक बार फिरंगी सेना से लोहा लेते हुए मौलवी साहब घायल हो गए। यह देख उनके एक सहयोगी क्रांतिकारी सहयोगी ने उन्हें अपनी पीठ पर लादकर मोर्चे से बाहर निकाला और लखीमपुर जनपद की तहसील मोहम्मदी के कठघर गांव पहुंचाया। जहां कल्लन खां नाम के एक चिकित्सक ने इलाज किया।
अंगे्रजो द्वारा क्रांतिकारियों का लगातार पीछा करना जारी रहा तो मौलवी साहब ने वहीं मोहम्मदी के लखपेड़ा में अपना कैम्प लगा दिया और वहीं अपना सिक्का भी ढाला। तभी गुप्तचरों ने सूचना दी कि शाहजहांपुर के पुवायां राज्य में राजा जगन्नाथ सिंह यहां कुछ अंग्रेज छिपे हैं। इस पर अपने भरोसेमंद मितौली के राजा लोने सिंह से बात की, क्योंकि राजा लोने सिंह पुवायां राजा के सगे साढ़ू भी थे। इस पर उन्होंने मौलवी साहब को सलाह दी कि पुवायां चल कर राजा साहब से बात की जाए। इसी बात पर मौलवी साहब अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ पुवायां चल दिए और वहां के एक बाग में अपना कैम्प लगा दिया। यह बाग आज भी मौलवी बाग के नाम से जाना जाता है।
मौलवी साहब ने राजा पुवायां को पत्र भेजकर कहा ‘‘ कि आपकी गढ़ी में जो अंगे्रज शरण पा रहे हैं उन्हें आप हमारे हवाले कर दें और इस आजादी की लड़ाई में हमारा साथ दें, अगर आप ऐसा नहीं करतें हैं तो आजादी के तलबगारों से लड़ने के लिए तैयार हो जाऐं।
मौलवी साहब का पत्र पाकर राजा साहब ने अपने सहयोगियों से बात कर एक योजनाबद्ध तरीके से मौलवी साहब के पत्र का उत्तर दिया ‘‘आपकी बात हमें मन्जूर है, लेकिन हमारी एक दरख्वास्त है कि आप हमारी दावत कबूल करें और हमारे गरीबखाने पर अकेले ही तशरीफ लाऐं आपसे कुछ गुफ्तगू करनी है।
पत्र पढ़कर मौलवी साहब ने भी अकेले ही गढ़ी जाने का फैसला किया, लेकिन उनके सहयोगी इस बात के लिए तैयार नहीं हुए। उनकी बात को न मानते हुए 15 जून, 1858 को मौलवी साहब अपनी हथिनी पर बैठकर अकेले ही गढ़ी की ओर रवना हो गए। मौलवी साहब की हथिनी ने जैसे ही गढ़ी में प्रवेश किया वैसे ही गढ़ी का फाटक बंद कर दिया गया। राजा जगन्नाथ सिंह के छोटे भाई बलदेव सिंह, जो पुवायां की सेना के सिपहसालार भी थे ने मौलवी साहब का स्वागत किया और उन्हें पान की बीड़ा खाने को दिया। पान का बीड़ा मुंह में डालते ही मौलवी साहब को पान में विष का अहसास हो गया। बलदेव सिंह अपनी घोड़ी पर मौलवी साहब के आगे चल रहे थे। अपने साथ दगाबाजी से गुस्से में मौलवी साहब ने अपनी तलवार खींच ली और प्रहार कर दिया। बलदेव सिंह तो बच गए, लेकिन जिस घोड़ी पर बलदेव सिंह चल रहे थे उसका पुट्ठा कट गया और वह गिर पड़ी। बलदेव सिंह भागकर गढ़ी में छुप गए। तलवार लेकर मौलवी साहब हथिनी से नीचे कूद गए। इसी बीच गढ़ी की छत पर छुपे बैठे टीका पासी ने उन कर कई गोलियां चलाईं, उसका निशाना अचूक था। उसकी गोलियों से मौलवी साहब खुद को बचा न सके और वहीं अपने मातृभूमि के लिए आहुति दे दी। उनके मारे जाने के बाद ब्रिटिश सरकार के पिट्ठू पुवायां के राजा ने मौलवी साहब का सर शाहजहांपुर के डिप्टी कमिश्नर को अंग्रजों के प्रति अपनी फरमाबरदारी की स्मृति के रूप में भेंट किया। इसके लिए राजा को 50 हजार का ईनाम दिया गया। अंगे्रेज सैनिकों ने उनका सिर शाहजहांपुर की तहसील सदर में नीम पर लटका दिया। जिसे रात में उनके क्रांतिकारी साथियों द्वारा उतार कर नगर से लगभग दो किमी की दूरी पर हरदोई मार्ग स्थित खन्नौत नदी किनारे ससम्मान दफना दिया। यहां आज एक भव्य मजार है और लोग इस महान क्रांतिकारी को श्रद्धांजलि अर्पित करने जाते हैं।
(सम्प्रति-लेखा विभाग, पुरूषोत्तम आदर्श क.इ. कालेज, जलालाबाद, शाहजहांपुर)

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