Type Here to Get Search Results !

सियासी अखाड़े में फिर गूंजी, उद्धव - राज की थापें

विजय यादव, मुंबई.


बाला साहब ठाकरे के चिता की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी, कि भतीजे राज ठाकरे ने उनके स्मारक को लेकर एक नया सियासी विस्फोट कर दिया. शायद बाला साहब ठाकरे की अस्थियों के साथ राज ठाकरे ने उनसे जुडी यादों का भी विसर्जन कर दिया. 
राज ठाकरे की पार्टी एमएनएस चाहती है कि, बाला साहब का स्मारक इंदु मिल की जमीन पर बने, जबकि वहां पहले से ही डा.भीमराव अम्बेडकर के प्रस्तावित स्मारक को लेकर आन्दोलन चल रहे है. इस आन्दोलन के मुखिया रामदास अठावले वर्तमान में शिवसेना - भाजपा गठबंधन के साथ है. राज ठाकरे ने शायद इसी दोस्ती को ख्याल में रखकर यह कैरम गेम का शॉट मारा है. एमएनएस जहां इस बयान से आम मराठी समाज को अपने को बाला साहब का प्रखर शुभचिंतक होने का सन्देश दिया, वहीं उन्होंने अठावले और उद्धव ठाकरे को दूर करने का भी प्रयास किया है.
राज ठाकरे का रामदास अठावले की पार्टी आरपीआई से अदावत पिछले मनपा चुनाव से ही चल रही है. दरअसल, शिवसेना ने मनपा चुनाव में रामदास अठावले को साथ लेकर नुकसान हो रहे अपने उस मराठी वोट की भरपाई कर ली थी, जो खिसककर राज ठाकरे के साथ चला गया था. तमाम कोशिशों के बाद भी राज ठाकरे शिवसेना को मनपा की सत्ता से दूर नहीं कर सके.
दरअसल, राज ठाकरे उद्धव पर हमले का एक भी मौका गंवाना नहीं चाहते. समय चाहे जैसा भी हो. बाला साहब की बीमारी हो या उद्धव का आपरेशन. अपने चाचा बाल ठाकरे की शैली में सियासत करने वाले राज के बाद अपना अलग दल महाराष्ट्रÑ नवनिर्माण सेना है, जिसे उन्होंने छह साल में पाल-पोसकर बड़ा किया है. उद्धव के पास पिता की बनाई, पाली-पोसी शिवसेना है, जिसका पूरे महाराष्ट्र के साथ कुछ अन्य राज्यों में भी संगठन है, कार्यकर्ता हैं. मुश्किल यह है कि उद्धव के पास तेवर नहीं हैं.
बाल ठाकरे चाहते थे कि राज और उद्धव फिर एक हो जाएं, हालांकि इस बारे में आंकलन अभी दूर की कौड़ी है, कि बालासाहब की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए राज-उद्धव तैयार हो जाएं, यह संभव नहीं दिख रहा. वैसे भी राज के ताजा हमले ने इस संभावना को भी ख़त्म कर दिया है. फिर भी, यह संभव हो जाए तो शिवसेना में आया बल राजनीतिक समीकरणों में बड़ा उलटफेर कर देगा. बाला साहब ठाकरे के जीते-जी राजनीतिक हलकों में राज ठाकरे को उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था. राज का उठने-बैठने और यहां तक कि भाषण देने का अंदाज अपने चाचा पर गया था, लेकिन लोकप्रियता के मामले में उद्धव, राज से बीस बैठते है. पिछले विधानसभा चुनाव में जहां शिवसेना को 44 सीटें मिली थीं, राज ठाकरे की एमएनएस 14 सीटें जीतने में सफल हुई थी.

सियासी टकराव और मेल मिलाप
दोनों भाइयों के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ती चली गई. उद्धव की बीमारी के दिनों में राज न सिर्फ उन्हें देखने अस्पताल पहुंचे. बल्कि उन्हें अपनी कार में बैठा कर वापस मातोश्री लाए. राज की इस पहल पर कई लोगों की भौंहें तनी, लेकिन दोनों कैंपों से यही प्रतिक्रिया आई कि इसके राजनीतिक अर्थ नहीं लगाए जाने चाहिए. बावजूद इसके राज के इस कदम को बारीकी से देखा जाए तो इसके गहरे राजनीतिक मायने समझ में आते हैं. भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठबंधन कम से कम कागज पर अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस एनसीपी गठबंधन को हराने की क्षमता रखता है. बाला साहब ठाकरे जैसे राजनीतिक रूप से सजग इंसान के लिए मौके की नजाकत को भांपना और उसका राजनीतिक फायदा उठाना बाएं हाथ का खेल था. बाला साहब ठाकरे अब नहीं रहे. उनके घोषित उत्तराधिकारी उद्धव को एक महीने के अंदर दिल के दो-दो आपरेशन कराने पड़े हैं. अंतिम क्षणों में बाला साहब ठाकरे का अपने नाराज भतीजे से संपर्क साधना और उन्हें अपने चचेरे भाई से मतभेदों को दूर करने के लिए राजी करना, एक राजनीतिक सूझबूझ भरा कदम था. बाला साहब ठाकरे का फॉर्मूला था, कि अगले विधानसभा चुनावों के बाद राज को शिवसेना विधानमंडल दल का नेता बनाया जाए और उद्धव को पार्टी की कमान दी जाए. राज को इस फॉमूर्ले से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन उद्धव की तरफ से इसे हरी झंडी नहीं मिली है. बाला साहब ठाकरे के इस असंभव से समझे जाने वाले प्रस्ताव पर गुपचुप तरीके से ही सही, लेकिन विचार तो चल रहा है. ऐसे में देखने वाली चीज यह होगी कि ठाकरे के जाने के बाद दोनों भाई उनकी विरासत को अक्षुण्ण रख पाते हैं या नहीं.

सैनिक तो चाहते हैं भाइयों में एका

पार्टी में फूट के बाद राज्य के दूरदराज इलाकों में हुए सर्वेक्षणों में संकेत मिले थे कि, दोनों भाइयों का आपसी मतभेद कभी दुश्मनी में नहीं बदल सकता और कार्यकर्ता चाहते हैं कि दोनों पार्टियां फिर से एक हो जाएं. लेकिन अब, जबकि छह साल में पहली बार ठाकरे परिवार में मेल-मिलाप की जरूरत महसूस हो रही है तो क्या ये मुमकिन है कि, नव निर्माण सेना की शिवसेना में वापसी हो जाए. इसका जवाब शायद अभी न मिले, लेकिन दोनों पार्टियों का फिर से मिल जाना इतना आसान भी नहीं होगा. राज ठाकरे ने अपनी पार्टी को राज्यभर में स्थापित कर दिया है. चुनावी सफलताओं के कारण अब राज्य में उनकी पार्टी को संजीदगी से लिया जाता है. दूसरी तरफ, शिव सेना के समर्थकों को अपनी तरफ खींचकर उन्होंने अपने भाई और चाचा की पार्टी को कमजोर करने का भी काम किया है. अगर राज ठाकरे शिवसेना में लौटेंगे तो इसकी कीमत भी चाहेंगे. क्या उद्धव उन्हें वो पद देने के लिए तैयार होंगे, जिसके न मिलने पर वो पार्टी से अलग हुए थे या फिर उन्हें उद्धव की बराबरी का कोई दर्जा दिया जाएगा? अगर ऐसा हुआ तो उद्धव को लोकप्रियता में राज काफी पीछे छोड़ देंगे. क्या उद्धव ये सियासी खुदकुशी करने को तैयार होंगे? दूसरी तरफ शिव सेना के नेतागण इस बात को जानते हैं, कि राज ठाकरे की वापसी से 2014 के आम चुनाव और उसी साल होने वाले विधानसभा के चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त फायदा होगा. इससे भी ज्यादा शिवसेना और नवनिर्माण सेना के जमीनी कार्यकतार्ओं की सबसे बड़ी इच्छा पूरी हो जाएगी. अब देखना है दोनों भाइयों की दोबारा दोस्ती का सफर ठाकरे परिवार तक ही सीमित रहता है या फिर राजनीति में अपना रंग लाता है.

किंग मेकर बनाने की चाहत

यहां यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि बाला साहेब खुद की तरह अपने बेटे को भी किंग मेकर बनाना चाहते थे. उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा था, मैंने शुरू से यही किया. सत्ता से अलग रहा हूं और चाहता हूं उद्धव भी ऐसा ही करे. मैंने उससे कहा है कि सत्ता के पीछे न भागे. इसके बदले सामाजिक काम करे. शिवसेना को अच्छी तरह चलाए और लोगों को सत्ता हासिल करने का मौका दे, ताकि जनता के साथ न्याय हो सके. बाला साहेब के रहते ही शिवसेना के टुकड़े हुए थे, तब पिछड़े वर्ग के छगन भुजबल और कद्दावर नारायण राणे जैसे बड़े नाम अलग हो गए थे. लेकिन, शिवसेना पर असर उतना नहीं पड़ा, जितना कोई दूसरा दल होता तो उसे पड़ता.

ठाकरे नाम के बाद शिवसेना का वजूद नहीं

ठाकरे के बिना शिवसेना नहीं है. यह वैसा ही है, जैसे गांधी नाम के बिना कांग्रेस की कल्पना करना. शिवसेना में दो नंबर के नेताओं के कोई मायने नहीं हैं. शिवसैनिकों की भीड़ ही शिवसेना की असली ताकत है. यह साफ है कि राज और उद्धव में से जो भी शिवसैनिकों की भीड़ जुटाएगा, वही सही मायने में हिंदू हृदय सम्राट बन पाएगा. गणित उतना सरल नहीं है, भीड़ जुटाने के मामले में राज और उद्धव के बीच राज ही सरस हैं. फिलहाल तो शिवसेना ब्रांड ही उद्धव के पास है, जब तक उद्धव खुद शिवसेना का नेतृत्व नहीं छोड़ते या बालासाहेब को बेतहाशा प्रेम करनेवाली शिवसैनिकों की भीड़ एमएनएस में शामिल नहीं होती, तब तक राज उस पर काबिज नहीं हो सकते. यह बड़े सवाल हैं जिनका जवाब सियासत के जानकारों के साथ ही आम जनता भी ढूंढ रही है.

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.