अन्तत:, सूचना आयोग ने अपनी हेकड़ी पूरी कर ही ली। परिणाम ‘हासिल आया शून्य’ ही रहा या फिर ‘किसी-किसी को कुछ-कुछ हासिल भी हुआ’; यह गहरी समीक्षा का विषय है। ऐसी निष्पक्ष समीक्षा से ही यह निष्कर्ष निकल पायेगा कि २९ मर्च २०१४ की लोक अदालत राज्य सूचना आयोग के साथ ही राज्य में पदस्थ अन्य संवैधानिक चेहरों पर भी कोई कालिख तो नहीं पोत गयी?
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डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल |
अन्तत:, म० प्र० राज्य सूचना आयोग ने २९ मार्च २०१४ को लोक अदालत लगा ही
ली। अपने पास लम्बित द्वितीय अपीली प्रकरणों के शीघ्र निपटारे के नाम पर
लोक अदालत लगाने की मन-मानी जहाँ अपने आप में पूरे के पूरे राज्य सूचना
आयोग के ‘वैधानिक रूप से दिवालिया’ होने की प्रमाण है वहीं लोक अदालत के
लिए प्रकरणों को चुनने, और फिर उनके निपटारे की भी, प्रक्रियाएँ इतनी
रहस्य-मयी रहीं कि आयोग के अधिनियम-दोषी लोक सूचना अधिकारियों तथा अपील
अधिकारियों के हितैषी होने का सन्देह प्रबल हो जाता है।
संक्षेप में, राज्य आयोग सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५ की मंशा और
स्वयं अपने ही गठन को खुला ठेंगा दिखाने का दुस्साहस दिखाता है। क्योंकि
सूचना आयोगों के पास लोक अदालत का विकल्प होता ही नहीं है, पूरी
परिस्थितियों की गहरी समीक्षा की जाये तो यह भी दिख जाता है कि म० प्र०
राज्य सूचना आयोग ने, अतीत में, जानकारी माँगने की आम आवेदक की इच्छा को ही
जिस भया-दोहन (ब्लैक मेलिंग) की नीयत बताते हुए कोसा है, २९ मार्च १४ को
उसने अपनी ही दहलीज पर उसी भया-दोहन को कानूनी जामा पहनाने का सर्वथा
अनैतिक अवसर खोज लिया।
लोक अदालत के अगले दिन प्रिण्ट मीडिया में आयी खबरों के अनुसार आयोग में
१५ हजार से अधिक द्वितीय अपील और शिकायतें निराकरण की प्रतीक्षा में
लम्बित पड़ी हैं। इनमें से कुल १२४७ प्रकरणों को आयोग ने लोक अदालत के लिए
चुना। लेकिन, लोक अदालत के आयोजन के पूरा होने तक यह साफ नहीं हो पाया कि
उसके लिए प्रकरणों के चयन का आधार क्या रहा और सभी लम्बित प्रकरणों को
क्यों नहीं सम्मिलित किया गया? बड़ी बात यह भी कि चुने गये प्रकरणों में से
लगभग ७५० में सम्बन्धित अधिकारियों ने लोक अदालत में आ कर जानकारी दे देने
की सहमति आयोग को भेज दी थी किन्तु कुल १०० प्रकरणों में ही आवेदकों को
माँगी गयी जानकारी दिलायी जा सकी। आयोजन को सम्पन्न हुए पूरा सप्ताह बीत
जाने के बाद भी आयोग ने अभी तक यह नहीं बतलाया है कि सहमति देने के बाद भी
लोक अदालत नहीं पहुँचने वाले आरोपी अधिकारियों के विरुद्द उसके द्वारा क्या
और कैसी कार्यवाहियाँ की गयी हैं अथवा की जाने वाली हैं?
दरअसल, यह चुप्पी ही रहस्य की वास्तविक खान है क्योंकि लोक अदालत के
चलने के दौरान ही सूचना भवन के गलियारों में बड़ी-बड़ी सौदे-बाजियाँ होते
सरे आम देखी गयीं। कुछ सौदे सफल हुए तो कुछ मोल-भाव अन्तिम परिणति तक नहीं
पहुँच पाये।
सहमति देने के बाद भी लोक अदालत नहीं पहुँचने वाले आरोपी बहुसंख्य अधिकारियों का रहस्य, सम्भवत:, पट नहीं पाये ऐसे सौदों में ही छिपा होगा। इनमें वे प्रकरण भी सम्मिलित हुए हो सकते हैं जिनमें आरोपी अधिकारियों से सौदे-बाजी करने वाले व्यक्ति अपील करने वाले आवेदक नहीं बल्कि ‘किन्हीं और’ की ओर से नियुक्त हुए बिचौलिये रहे होंगे।
सहमति देने के बाद भी लोक अदालत नहीं पहुँचने वाले आरोपी बहुसंख्य अधिकारियों का रहस्य, सम्भवत:, पट नहीं पाये ऐसे सौदों में ही छिपा होगा। इनमें वे प्रकरण भी सम्मिलित हुए हो सकते हैं जिनमें आरोपी अधिकारियों से सौदे-बाजी करने वाले व्यक्ति अपील करने वाले आवेदक नहीं बल्कि ‘किन्हीं और’ की ओर से नियुक्त हुए बिचौलिये रहे होंगे।
भोपाल से प्रसारित होने वाले एक टीवी चैनल के अनुसार मुख्य सूचना आयुक्त
के डी खान ने उससे कहा कि लोक अदालत में आने वाले पक्ष-कारों (अर्थात्
आवेदकों) को आयोग द्वारा समझाइश दी जायेगी कि उनके द्वारा माँगी गयी
जानकारी ‘हमारे’ पास नहीं है, इसे वे स्वीकार कर लें। इससे सहमत नहीं होने
वालों को आगे की सुनवाई-तिथि दे दी जायेगी। अन-कही ही सही, आयोग प्रमुख के
ऐसे कथन से लोक सूचना अधिकारियों से असन्तुष्ट आवेदकों के लिए आयोग की ओर
से दी गयी एक चेतावनी बिल्कुल स्पष्टता से मुखर होती है। इसका शाब्दिक
अनुवाद यह है कि ‘परस्पर समझौते’ के बाद जितना कुछ दिया जा रहा है वह उसे
स्वीकार कर अपीली प्रकरण को समाप्त हुआ मान ले अन्यथा वह उतने के लिए भी
तरस जायेगा! सरल शब्दों में, लोक अदालत के आयोजन की सारी कवायद शासकीय
मशीनरी के अनैतिक हितों को संरक्षण देने की इकलौती नीयत से ही की गयी थी।
मुख्य आयुक्त की यह स्वीकारोक्ति जानकारों को आश्चर्य में बिल्कुल भी नहीं
डालती।
दरअसल, सुनवाई के लिए बुलाये गये असंतुष्ट आवेदकों के लिए यह शर्त
न्यौते के साथ पहले से ही प्रेषित की गयी थी कि लोक अदालत में आने से सात
दिन पहले तक वे हर हालत में आयोग को यह लिख कर दे दें कि जानकारी नहीं
मिलने का उनका वह सारा असन्तोष-आक्रोष दूर हो चुका है कि वांछित जानकारी
उन्हें नहीं मिली है और इस कारण से आयोग उन्हें जानकारी तो उपलब्ध कराये ही
कराये, जिम्मेदार अधिकारी के विरुद्ध अधिनियम में निर्धारित समुचित
दाण्डिक कार्यवाही भी करे। आयोग का लक्ष्य एकदम स्पष्ट था — वह एड़ी-चोटी
का जोर लगा कर समझौता कराना चाहता था; आवेदक और अधिनियम-दोषी अधिकारी के
बीच। अर्थात्, न्याय की जिस मंशा के लिए अधिनियम बना, और सूचना आयोगों का
भी गठन हुआ, लोक अदालत उसकी पूर्ति के लिए आयोजित ही नहीं हुई थी!
लोक अदालत के आयोग के आयोजन को असंवैधानिक बतलाते हुए स्वयं-सेवी संगठन सजग
ने उसका कठोर विरोध किया है। आयोग और अधिनियम-दोषी अधिकारियों के सम्भावित
गठ-जोड़ द्वारा प्रयास-पूर्वक दबाये गये तथ्यों को सामने लाने की नीयत से
लोक सरोकारों और सामाजिक न्याय के लिए प्रति-बद्ध इस संगठन सजग ने राज्य सूचना आयोग के समक्ष जहाँ एक लिखित ज्ञापन सौंपा वहीं उसने आरटीआई का एक आवेदन भी लगाया है।
लोक अदालत की जड़ में घुसी इस सौदे-बाजी के रहस्य को समझने के लिए सबसे
पहले अधिनियम की मंशा, अपरिमित शक्ति और अपीली अधिकारी की सीमा के संक्षेप
को ठीक-ठीक जान लेना आवश्यक है। सूचना के अधिकार के सन्दर्भ में, दरअसल,
अधिनियम २००५ के मूलत: दो खण्ड हैं — (१) माँगी गयी देय जानकारी आवेदक को
उपलब्ध कराना सुनिश्चित करना और (२) जानकारी-प्रदाय में किसी भी प्रकार की
कोई अधिनियम-विरोधी टाला-मटोली या देर हुई हो तो इस अक्षम्य अपराध के लिए
सम्बन्धित लोक सूचना अधिकारी/अपील अधिकारी पर आर्थिक तथा प्रशासनिक शास्ति
अधिरोपित करना। अधिनियम की अपीली प्रक्रिया आरम्भ होने जाने के बाद, इन दो
के अलावा बीच का कोई भी समझौता अनैतिक और आपराधिक ही होगा।
सजग का कहना है कि आवेदक द्वारा किया जाने वाला तथाकथित भया-दोहन इस अनैतिकता और आपराधिकता का ही एक स्वरूप है। और, ऐसे किसी समझौते के लिए स्वयं को बिचौलिये की तरह प्रस्तुत करना अधिनियम के प्रति किया जाने वाला आयोग का ऐसा अक्षम्य अपराध है जिसके लिए इस प्रक्रिया के जिम्मेदार रहे उसके प्रत्येक अधिकारी तथा कर्मचारी को, तत्काल प्रभाव से, बलात् पद-च्युत किया जाना चाहिए।
संगठन ने एक ज्ञापन दे कर निर्वाचन आयोग से आग्रह भी किया कि वह आयोजित
लोक अदालत को निरस्त करने का निर्देश सूचना आयोग को दे। म० प्र० के मुख्य
निर्वाचन पदाधिकारी को सम्बोधित ज्ञापन में सजग ने इसके मुख्य दो आधार बतलाये थे —
१. पहला तो यह कि सूचना का अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत्
प्रस्तुत हुए अपीली आवेदनों के निराकरण की प्रक्रिया में पीठासीन अधिकारी
के पास पक्ष-कारों को ‘समझाइश’ देकर ‘सुलह-सफाई’ से निपटारा कर लेने का
सुझाव देने के स्व-विवेकी अधिकार के उपयोग का न तो कोई प्रावधान है और ना
ही कोई अधिकार ही। अधिनियम से सम्बन्धित अपीली प्रकरणों में लोक अदालतें
लगायी ही नहीं जा सकती हैं। ऐसे प्रकरणों में विशुद्ध अधिनियमित प्रावधानों
के अन्तर्गत् ही नियमित आदेश पारित किये जा सकते हैं; और
२. दूसरा यह कि चुनाव-प्रक्रिया के आरम्भ हो जाने और आदर्श आचार-संहिता के प्रभावी हो जाने से लोक अदालत जैसे विशेष आयोजन प्रतिबन्धित हैं। स्वयं म० प्र० उच्च न्यायालय भी मानता है कि चुनाव-प्रक्रिया के दौरान लोक अदालतें नहीं लगायी जा सकती हैं। इसीलिए उसने १२ अप्रैल २०१४ को निर्धारित राष्ट्रीय लोक अदालत अनिश्चित समय के लिए स्थगित कर दी है।
२. दूसरा यह कि चुनाव-प्रक्रिया के आरम्भ हो जाने और आदर्श आचार-संहिता के प्रभावी हो जाने से लोक अदालत जैसे विशेष आयोजन प्रतिबन्धित हैं। स्वयं म० प्र० उच्च न्यायालय भी मानता है कि चुनाव-प्रक्रिया के दौरान लोक अदालतें नहीं लगायी जा सकती हैं। इसीलिए उसने १२ अप्रैल २०१४ को निर्धारित राष्ट्रीय लोक अदालत अनिश्चित समय के लिए स्थगित कर दी है।
किन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि निर्वाचन आयोग ने इतने गम्भीर संवैधानिक
दायित्व के निर्वहन के प्रति किंचित् भी जागरूकता नहीं दिखलायी और लोक
अदालत के अनैतिक और स्वच्छन्द आयोजन को, बिना रोक-टोक, पूरा हो जाने दिया।
क्योंकि यह एक अनपेक्षित सम्भावना नहीं थी इसलिए सजग ने म० प्र० के
राज्यपाल के समक्ष भी अपना विरोध विधि-वत् दर्ज कराया। लोक अदालत के आयोजन
को निरस्त करने के निवेदन के साथ फैक्स से भेजे २८ मार्च २०१४ के अपने
ज्ञापन में सजग ने अन्य बातों के अलावा राज्यपाल को यह भी लिखा —
“सूचना का अधिकार अधिनियम, २००५ के अन्तर्गत् गठित होने से आयोग को इस वैधानिक तथ्य की जानकारी/समझ होनी चाहिए कि अधिनियम के अन्तर्गत् प्रस्तुत जानकारी-प्रदाय से सम्बन्धित किसी भी अपीलीय प्रकरण में स्वयं आयोग की देख-रेख और/अथवा मध्यस्थता में तथा-कथित परस्पर समझ के आधार पर कोई समझौता कराने की किसी पहल की कोई वैधानिक भूमिका हो ही नहीं सकती है।”
(०६ अप्रैल २०१४)