अगले तीन महीने बाद होने वाले महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की राजनीतिक तपन अभी से महसूस की जा रही है, तपते चुनावी तवे पर मानसूनी नेताओं के शाब्दिक फुहारों ने छौंका लगाना भी शुरू कर दिया है। लगभग सभी दल अपने-अपने फार्मूले आजमाने में लग गए है। मतदाताओं को लुभाने के लिए नई-नई रेसिपी तैयार की जा रही है, कोई मराठा आरक्षण पका रहा, तो कोई हिंदुत्व की पूरी तल रहा, इतना ही नहीं भाषावाद के सामाजिक विष को भी मराठी मानुष का अमृत बताकर वोटरों को पिलाने की कोशिश की जा रही है। कई नेता अपने को बढ़िया सियासी रसोइया बताकर चूल्हा बदलने की फिÞराक में लगे है, तो कुछ अपने ही दल के तैयार खाने में कड़वाहट मिलाने की कोशिश में है। ताजा उदाहरण कांग्रेस के आक्रामक नेता नारायण राणे है।
तेजी से चढ़ने लगा है महाराष्ट्र में सियासी पारा
राजनीतिक तपन शुरू होते ही रोज नए समीकरण
दलित वोटों के सौदागरों ने फिर शुरु की सौदेबाजी
महाराष्ट्र का आगामी विधानसभा चुनाव काफी आक्रामक रहने वाला है। इस चुनाव में खासकर उन नेताओं और दलों की चर्चा सबसे ज्यादा रहेगी, जो मतों का विभाजन करने और वोटो का समीकरण बदलने में अहम भूमिका निभाते है। ऐसे दलों में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नव निर्माण पार्टी, सपा, बसपा, आरपीआई के अलग-अलग गुट आदि। महाराष्ट्र के चुनावी समर में प्रमुख रूप से भाजपा-शिवसेना व आरपीआई (आठवले) और कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी गठबंधन ही रहने वाले है, लेकिन इन सबके बीच मनसे, बसपा और सपा वोटो का धु्रवीकरण करने में अपने मजबूत किरदार में रहेंगे। इनमे सभी दलों की नजर मनसे पर होगी। मनसे राज्य की ऐसी सबसे बड़ी पार्टी है, जो जीतने के लिए कम और वोट कटवा के रूप में सबसे ज्यादा पहचानी जाती है। 2009 के विधानसभा चुनाव में ही कांग्रेस-राकांपा गठबंधन का जाना तय समझ जा रहा था, लेकिन मनसे का वोट काटो अभियान कांग्रेस-राकांपा के लिए संजीवनी बना। नतीजतन एक बार फिर से कांग्रेस महाराष्ट्र की सत्ता में काबिज हो गई।

ऐसा भी नहीं है कि, कांग्रेस लोकसभा की हार के बाद निराश हो गई है। कांग्रेस-राकांपा आगामी विधानसभा के लिए अभी से मतदाओं को लुभाने में जुट गई है, लेकिन फार्मूला वही पुराना है। कांग्रेस की पुरानी नीति रही है कि, एक हाथ दो दूसरे हाथ लो। इसी कड़ी में उसने लोकसभा चुनाव से पहले फूड सिक्युरिटी बिल, राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना जैसे लोक लुभावन योजना ले आई थी। नरेंद्र मोदी के विकास वाले मुद्दे के सामने यह उपहार योजना कहां चली गई, जिसका अभी तक सही पता पूरी कांग्रेस मिलकर नहीं लगा सकी। यही पुराना फार्मूला राज्य की पृथ्वीराज चव्हाण सरकार फिर से आजमाने जा रही है। चुनाव के आखिरी वक्त में सरकार ने मराठा आरक्षण, वर्ष 2000 तक के झोपड़ों को संरक्षण देने की घोषणा कर एक बार फिर से मतदाताओं को फील गुड कराने का काम किया है। गौरतलब होगा कि महाराष्ट्र की राजनीति में कुल 35 प्रतिशत मराठा समाज है। मराठा समाज का मतलब मराठी से नहीं है, मराठा महाराष्ट्र की ऊंची जाती है। मराठा जाति मिश्रित किस्म की जाति है, इसमे क्षत्रिय भी है, तो दूसरी तरफ कुनबी या किसान भी है। कुनबी यानी जैसे उत्तर भारत के कुर्मी। इन दो समूहों से यह जाति बनी है। इस जाति के लोग शिवाजी को अपना देवता मानते हैं, क्योंकि उन्होंने इसे सत्ता संपन्न बनाया। यह जाति राज्य की 35 प्रतिशत आबादी होने के कारण राज्य की राजनीति पर हावी है। बहुसंख्य विधायक इसी जाति के हैं। यह जाति आज महाराष्ट्र की सत्तारूढ़ जाति है, ज्यादातर मुख्यमंत्री और मंत्री इसी जाति के रहे है। आर्थिक रूप से भी यह जाति खासी सशक्त हैं। शकर कारखाने, काआपरेटीव बैंक जो महाराष्ट्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन पर इस जाति का ही कब्जा है। इस सबके बल पर मराठा जाति ने सत्ता पर भी अपनी पकड़ मजबूत रखी है।

सत्ता पर काबिज होने के लिए लगभग सभी दलों के लोग जोड़-तोड़ की गणित आजमाने से भी पीछे रहने वाले नहीं है। पिछले दिनों ठाणे जिले के 7 कांग्रेसी नगरसेवकों (पार्षद) को शिवसेना अपने साथ लाकर इस खेल की शुरुआत भी कर चुकी है। मुख्यमंत्री बनने की लालसा लेकर कांग्रेस में शामिल होने वाले नारायण राणे भी अब किसी नए मांद की तलाश में है। भाजपा सूत्रों की माने तो, नारायण राणे पिछले सप्ताह ही सेक्युलर से कम्युनल हो गए होते, लेकिन आखिरी वक्त में शिवसेना के विरोध ने उन्हें भाजपा प्रवेश से रोक दिया। जितनी जरुरत आज राणे को भाजपा की है, उतनी ही जरुरत भाजपा को राणे की है। पहले प्रमोद महाजन इसके बाद गोपीनाथ मुंडे की मौत के बाद महाराष्ट्र भाजपा में कोई ऐसा नेता नहीं है, जो विरोधियों पर शिवसेना जैसी आक्रामक भाषा में प्रहार कर सके। नारायण राणे के साथ उनका एक मजबूत संगठन स्वाभिमान भी भाजपा के साथ खड़ा हो जायेगा। स्वाभिमान को राणे के दोनों पुत्र नीलेश और नितेश चलाते है। नारायण राणे को भाजपा में शामिल करने के पीछे भाजपा की एक और रणनीति हो सकती है, अपनी जमीनी पकड़ को मजबूत करना। 1980 से लेकर आज तक भाजपा महाराष्ट्र में अपने जमीनी कार्यकर्ताओं की मजबूत नीव नहीं रख सकी। शिवसेना से गठबंधन के बाद से वह निचले स्तर पर और भी कमजोर हो गई। चुनाव के समय भाजपा सिर्फ बाहरी ढांचे के रूप में कार्य करती रही है, जबकि स्थानीय स्तर पर प्रचार सामग्री पहुंचाने का काम शिवसेना के कार्यकर्ता करते रहे। साफ-साफ कहा जाए तो, महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना भाजपा की बैसाखी बन गई। भाजपा अब इसमे बदलाव लाना चाहती है। हालांकि इसकी शुरुआत लोकसभा चुनाव से पहले दिसंबर 2013 में ही कर दी गई थी। मुंबई के बीकेसी ग्राउंड में पहली बार भाजपा अपने बूते पर नरेंद्र मोदी की सभा का आयोजन कर शिवसेना को यह संकेत दे दिया था, कि भाजपा अपने दम पर भी मैदान भरने की ताकत रखती है। उस समय भी शिवसेना नेताओं ने खूब शोर मचाया, लेकिन भाजपा ने कोई आक्रामक जवाब नहीं दिया। उस सभा में मोदी के साथ गोपीनाथ मुंडे भी मौजूद थे। महाराष्ट्र की राजनीति में भाजपा की यह पहली बड़ी सभा थी, जिसमे शिवसेना को शामिल नहीं किया गया था।
हिन्दी भाषियों का अनुत्तरित सवाल
भाजपा के सामने एक सबसे बड़ी समस्या तब आती है, जब हिंदी भाषियों के मामले में वह खुलकर बोल नहीं पाती। इसका कारण शिवसेना गठबंधन है। खासकर मुंबई और ठाणे में भाजपा के पास हिंदी भाषियों का मजबूत संगठन है। इन्हे बचाये रखने के लिए भी भाजपा को सेना से अलग होना पड़ सकता है। इस हालत में सिर्फ नारायण राणे ही मराठी कार्यकर्ताओं की क्षतिपूर्ति कर सकते है। क्या भाजपा शिवसेना से अलग हो पाएगी? अभी इस पर संशय बना हुआ है। अगर नारायण राणे भाजपा में प्रवेश करते है, तो निश्चित ही दोनों को अलग होना पड़ सकता है। इस परिस्थिति में भाजपा-सेना गठबंधन के नए किरदार रामदास आठवले भी भाजपा से अलग हो सकते है। आठवले फिलहाल भाजपा कोटे के एमपी से राजयसभा सदस्य है। आठवले महाराष्ट्र की राजनीति में अकेले ऐसे नेता है, जिन्हे शुरूआती दिनों से ही बैशाखी के भरोसे चलने की आदत है। यहां भी इनका यही हाल है। खुद के बूते यह महोदय एक विधानसभा की सीट तक नहीं जीत सकते, लेकिन सपने प्रधानमंत्री बनाने और बनने तक के देखते है। राज्य में कुल 16 प्रतिशत दलित मतदाता है, लेकिन चुनाव के समय आरपीआई के सारे वोटर कहां चले जाते है, यह आठवले को भी नहीं पता चलता। फिलहाल वे राखी सावंत के साथ व्यस्त है। भाजपा को आठवले के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। ताजा घटनाचक्र को देखते हुए तो यही लगता है कि, राणे की कांग्रेस से विदाई का समय टल गया है।
भारतीय जनता पार्टी ने अभी से हिंदी भाषी मतदाताओं को जोड़ने के लिए अपने उत्तरभारतीय मोर्चा को सक्रिय कर दिया है। हाल ही में मोर्चा के अध्यक्ष मोहित कंबोज ने एक ही दिन में मोर्चा के 26 जनसम्पर्क कार्यालय खोलकर अपने काम की शुरुआत भी कर दी है। संभवत: यह भाजपा की गठबंधन टूटने की पूर्व तैयारी हो। अगर शिवसेना से नाता टूटा तो भी भाजपा मजबूती से लड़ने के लिए तैयारी कर रही है। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस-राकांपा के बीच भी खटास शुरू हो गई है। राकांपा का मानना है कि, लोकसभा में उसे कांग्रेस के कर्मो का दंड भुगतना पड़ा। ऐसे में वह भी कांग्रेस से अलग होने के मूड में है। यानि मौजूदा हालात में सबसे बुरी स्थिति कांग्रेस के लिए है।