डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.
निर्वाचन आयोग कोई भी बचकानी सफ़ाई भले देता फिरे लेकिन वह इसे झुठला नहीं पायेगा कि उसने न्यायिक आदेश के पालन के अपने महत्व-पूर्ण दायित्व की खुली अवहेलना की है। और, यह उसके द्वारा सर्वोच्च न्यायालय की सोच-समझ कर की गयी अवमानना से रत्ती भर भी कम नहीं है।
उम्मीदवार को नकारने के अधिकार को स्वीकारते हुए, परमादेश याचिका (सिविल) क्र० 161/2004 में पारित अपने अन्तिम आदेश की कण्डिका 61में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने दिनांक 27 सितम्बर 2013 को निर्वाचन आयोग को निम्न निर्देश दिया था —
“…Besides, we also direct the Election Commission to undertake awareness programmes to educate the masses.”
यह निर्विवाद सचाई है कि उपरोक्त न्यायिक निर्णय के बाद हुए विधान सभा चुनावों में निर्वाचन आयोग ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिसे दिखा कर वह यह दावा कर सके कि उसने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने के अपने दायित्व का थोड़ा सा भी निर्वाह किया था।
यही नहीं, लोकसभा के चल रहे आम चुनाव में भी निर्वाचन आयोग देश के सबसे बड़े न्याय मन्दिर के इस निर्देश की खुली अवहेलना करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है।
दरअसल, उम्मीदवारों को नकारने के अधिकार वाले मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के बाद ईवीएम मत-पत्रों में NOTA के बटन को उम्मीदवारों के नामों के बाद, सबसे अन्त में, प्रदर्शित करना अनिवार्य हो चुका है। इसी तरह, अपेक्षा यह भी थी कि केवल चुनावों की अधि-घोषणा के बाद से ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उपरोक्त निर्णय दे दिये जाने के बाद से ही निर्वाचन आयोग आम मत-दाता को ‘उम्मीदवार को नकार सकने के’ उसे दिये गये अधिकार के बारे में जागरूक करने के प्रयास सतत् रूप से करता रहता। किन्तु, आयोग ने इस दिशा में कुछ भी नहीं किया। यही नहीं, आयोग ने तो देश की सबसे बड़ी अदालत के न्यायिक आदेश की खुली अवहेलना तक कर दी है। सर्वोच्च न्यायालय की खुली अवमानना करने वाली यह अवमानना तब हुई जब, मत-दान के लिए मत-दान केन्द्र आये आम मत-दाता को समझाइश देने के लिए, उसने मतदान-कक्ष के बाहर मत-पत्र के ‘नमूने’ को प्रदर्शित करने के अपने वैधानिक दायित्व का महज औपचारिक निर्वाह भर किया। इस नमूना मत्र-पत्र में NOTA का कोई उल्लेख नहीं है जबकि, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के प्रकाश में, और विशेष रूप से ‘जागरूकता बढ़ाने के’ उसके दायित्व की दिशा में, नमूना मत्र-पत्र में NOTA को सबसे अन्त में प्रदर्शित किया जाना बन्धन-कारी न्यायिक आवश्यकता हो चुका है। गम्भीर तो यह है कि आयोग का यह औपचारिक दायित्व-निर्वाह अब उसके द्वारा वैधानिक अपराध करना हो चुका है।
इसे समझने के लिए आयोग के बन्धन-कारी वैधानिक दायित्व की बारीकी समझनी होगी। मतदान-कक्ष के बाहर मत-पत्र के प्रारूप में उम्मीदवारों के डमी नाम और चिन्ह वाले पोस्टर चिपकाये जाते हैं। यह पोस्टर वास्तविक मत-पत्र की नहीं बल्कि उसका आभास कराती एक डमी की प्रति-कृति होते हैं जो समूचे मतदान-क्षेत्रों व केन्द्रों के लिए एक समान होते हैं। और, इन्हें केवल इसलिए बनाया तथा प्रदर्शित किया जाता है ताकि उन्हें देख कर मत-दाता को निर्वाचन आयोग द्वारा मत-पत्र में किये गये प्रावधानों का सटीक आभास हो जाये।
इस आम चुनाव में मत-दान कक्ष के बाहर प्रवेश द्वार की दीवार पर निर्वाचन आयोग द्वारा चिपकाये गये ‘नमूना मत-पत्रों’ में उम्मीदवारों के डमी नाम और चिन्ह तो छापे गये हैं किन्तु, इनके साथ न्यायिक रूप से बन्धन-कारी बनाये गये सभी उम्मीदवारों को नकारने के अधिकार को प्रदर्शित करने वाले NOTA के बटन को प्रदर्शित करने से साफ़ तौर से बचा गया है।
इस हेकड़ी के लिए निर्वाचन आयोग अब कोई भी बचकानी सफ़ाई भले देता फिरे लेकिन वह इस सचाई को झुठला नहीं पायेगा कि उसने न्यायिक आदेश के पालन के अपने महत्व-पूर्ण दायित्व की खुली अवहेलना की है। यहाँ यह उल्लेख करना भी महत्व-पूर्ण है कि लोक सरोकारों के लिए प्रति-बद्ध स्वयं-सेवी सामजिक संगठन सजग ने म० प्र० के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी के कार्यालय में सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत् आवेदन प्रस्तुत कर पहले ही यह जानकारी माँगी है कि आयोग ने आम मत-दाता को प्रशिक्षित/जागरूक करने के अपने दायित्व के निर्वाह में अभी तक क्या-कुछ किया है?