मोदी-सरकार के पहले आम बजट पर सारे विरोधी एक सुर में चीख रहे हैं कि लॉली-पॉप स्वादिष्ट नहीं निकला। चुनाव की भीषण पराजय से अभी तक हाँफ रही कांग्रेस और उसकी क्वीन कह रही हैं कि बजट उनकी दु:ख-दायी प्रति-कृति भर है। दु:ख-दायी इसलिए कि उन्होंने मोदी से बड़ी-बड़ी आशाएँ की थीं!
नौ महीनों की बची इस साल की अवधि के लिए मोदी-सरकार का पहला बजट आज प्रस्तुत हो गया। जिन बड़े ‘हादसों’ की राह विरोधी, विशेष रूप से कांग्रेसी, देख रहे थे; इस बजट में वे उन्हें ढूँढ़े नहीं मिल रहे हैं। जिन ‘क्रांति-कारी’ अतिरेकों की देशी धन-पतियों को अपेक्षा थी वे भी जमीन पर नहीं उतरे हैं। कुछ छूटें बढ़ी हैं और कुछ कठोरताएँ भी सामने आने वाली हैं। लेकिन, न तो छूटें असहज हैं और ना ही कठोरताएँ असामयिक।
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मोदी-सरकार का पहला बजट |
हाँ, राजनैतिक बैंगन का यह भुर्ता स्वादिष्ट और सुपाच्य होगा या नहीं, यह अगले नौ महीनों में ही ठीक-ठीक समझ में आयेगा।
आम चुनाव की भीषण पराजय के आघात से अभी तक हाँफ रही कांग्रेस और उसकी क्वीन कह रही हैं कि मोदी का यह ‘बकवास’ बजट उनकी अपनी सरकारों की दु:ख-दायी प्रति-कृति भर है। अपनी प्रतिक्रियाओं की सफ़ाई में सारे के सारे विरोधी कमो-बेस एक सा ही तर्क दे रहे हैं कि यह बजट दु:ख-दायी इसलिए है क्योंकि मोदी के पहले बजट से उन्होंने बड़ी-बड़ी आशाएँ पाल रखी थीं लेकिन, जेटली ने उन्हें आलोचना का कोई ठोस मुद्दा नहीं दिया।
आम बजट से तत्काल पहले सरकार ने जो अनेक सब्ज-बाग दिखलाये थे उनमें भारी-भरकम राशियों के निवेश की बातें कही गयी थीं। इस पर विद्वानों ने सवाल भी उठाये थे। सवाल निवेश के सन्दर्भों पर उतने नहीं थे जितने कि निवेश के लिए पूँजी की उपलब्धता पर।
यों, सरकार ने चुनिन्दा सन्दर्भों में एफ़डीआई की राह खोल कर जाहिर तौर पर इन सवालों का उत्तर दे दिया है लेकिन क्या मामला यहीं सिमट कर रह जायेगा? यही मोदी के सोच, दावों और नीयत की परीक्षा का वास्तविक कुरु-क्षेत्र होगा। लेकिन सारे दुराग्रह ताक पर रख दिये जायें तो इसे समझना पहाड़ तोड़ने जैसा दुष्कर नहीं होगा।
विशेष रूप से, कांग्रेस और यूपीए की उन प्रति-क्रियाओं से प्रभावित होने वालों को समझना होगा जिनके अनुसार बजट में कुछ भी नया नहीं है क्योंकि यही सारे प्रावधान अतीत के बजटों में भी किये जाते रहे हैं। दरअसल, इस देश की वास्तविक समस्या नीति-गत् निर्णयों, मेरा मतलब है, घोषणाओं के माध्यम से कागज के पन्नों पर नीतियों के शब्द-जाल बुनने की कभी नहीं रही। हाँ, बनायी गयी नीति को, इस अथवा उस निहित स्वार्थ से, जमीन पर उतरने नहीं दिया गया। भ्रष्टाचार जैसे राष्ट्र-घाती कृत्य इसमें मुख्य कारक रहे।
कांग्रेस समेत जो विरोधी चीख रहे हैं कि आमदनी बढ़ाने के कोई विशेष उपाय बताये बिना आज के आम बजट में दी गयी छोटी-छोटी छूटें भी भारी समस्या साबित होंगी वे भूल जाते हैं कि मोदी के पास टैक्स की विद्यमान दरों पर ही राजस्व बढ़ाने का वह विकल्प मौजूद है जिसका ईमान-दार दोहन बीती सरकारों ने राजस्व-हित में कभी नहीं किया। चुनावी समर में मोदी ने इस मुद्दे को बार-बार उठाया है। और, इसी के सहारे ‘काम करने का दिखलावा करने वाले’ राज-नेताओं की तुलना में ‘सच-मुच में काम करने वाले’ राजनीतिज्ञ की अपनी विश्वसनीयता स्थापित की है। सरकार बना लेने के बाद, मोदी को अपनी इसी विश्वसनीयता को अब पुष्ट करना है। सरल शब्दों में मोदी को, विरासत में मिले तन्त्र और व्यवस्था की गुण-वत्ता में स्पष्ट सुधार लाने के साथ-साथ राजनैतिक शासकों की नीयत की शुचिता के भी सहारे, पूर्व-वर्ती सरकार पर लगाये अपने गम्भीर आरोपों को सिद्ध करना है।
अगले बजट से पहले यह सरकार यदि ऐसा करके दिखला भी देती है, जो कि उसे दिखलाना ही होगा; तो केवल विरोध के लिए ही विरोध करने वालों को मुँह छिपाने की जगह ढूँढ़ना भी कठिन हो जायेगा।