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बहुत विस्तरित है ‘व्यापम’ घोटाले की आँच

डॉ. ज्योति प्रकाश, भोपाल.

कुख्यात हुए ‘व्यापम घोटाले’ को लेकर म० प्र० प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री दिविजय सिंह ने प्रदेश के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को जो पत्र लिखा न्यायालय ने उसे पत्र-याचिका के रूप में विचार के लिए स्वीकार लिया है। यों, पत्र में सरकारी तन्त्र पर बहुत गम्भीर प्रश्न हैं किन्तु न्यायालय की उँगली स्वयं उन पर भी उठ सकती है।

मध्य प्रदेश में प्रवेश और भर्ती में भ्रष्टाचार होने के आरोप लगने से कुख्यात हुए ‘व्यापम घोटाले’ को लेकर म० प्र० प्रदेश के पूर्व मुख्य मन्त्री दिविजय सिंह ने प्रदेश के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्याय-मूर्ति ए एम खानविलकर को एक पत्र लिखा। 1 जुलाई 2014 को दिल्ली-पते से भेजे गये इस पत्र को मुख्य न्यायाधीश ने पत्र-याचिका के रूप में विचार के लिए स्वीकार लिया। सुनवाई सोमवार दिनांक 7 जुलाई को होगी।

आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार के बीच प्रदेश के मुख्य मन्त्री शिवराज चौहान ने विधान सभा में दावा किया था कि यदि उन पर लगे आरोप सिद्ध हो जाते हैं तो वे ‘राजनीति क्या, जीवन से ही सन्यास ले लेंगे’। आरोपों में स्वयं पर निजी रूप से उछले कीचड़ से तिल-मिलाये भाजपा मुख्य मन्त्री ने यह कह कर पलट-वार भी किया कि उनकी सरकार कांग्रेस शासन में हुई मन-मानी भर्तियों की जाँच करायेगी।

अंग्रेजी में लिखे दिग्विजय सिंह के पत्र को उच्च न्यायालय ने इतना महत्व क्यों दिया, यह समझने के लिए उस पत्र का सर्वांग पाठ करना आवश्यक है — 
 
बहुत विस्तरित है ‘व्यापम’ घोटाले की आँच “…’व्यापम घोटाले’ के नाम से कुख्यात मध्य प्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मण्डल भोपाल द्वारा की गयी दाखिलों और नियुक्तियों की जाँच-पड़ताल माननीय उच्च न्यायालय की प्रत्यक्ष निगरानी में हो रही है। अपराध वास्तव में तो छात्रों, बेरोजगार युवाओं और इसलिए उनके माता-पिताओं को छलने का हुआ है। जिसमें संदिग्ध साधनों के माध्यमों से प्रवेश या रोजगार हेतु बड़ी तादाद में अयोग्य उम्मीदवारों का चयन हुआ है। हलांकि यह भी माना जाता है कि घोटाला परिवहन, शिक्षा, डेयरी, माप-तौल, पुलिस जैसे सरकारी विभागों में नियुक्तियों से भी सम्बन्धित है लेकिन एसटीएफ द्वारा प्रस्तुत मूल्यांकन रिपोर्ट केवल चिकित्सा-दाखिलों के सम्बन्ध में ही हैं।

जाँच-पड़ताल में माननीय उच्च न्यायालय की न्यायिक निगरानी पर मेरा उच्चतम्‌ सम्मान और विश्वास है तथापि, यह लगता है कि ऐसे कुछ तथ्य जो जाँच की जड़ तक जाते हैं और मौटे तौर पर माननीय उच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित निष्पक्ष जाँच को दूषित करते हैं, उन्हें माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष रखा जाना चाहिए। इसीलिए यह पत्र-याचिका।

शुरूआत में निजी कॉलेजों द्वारा एमबीबीएस ग्रेजुएट पाठ्य-क्रम में किये जाने वाले दाखिलों को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्‌ (एबीवीपी) ने अपने वरिष्ठ कार्यालयीन अधिकारी श्री बी डी शर्मा और वकील श्री पुरुषेन्द्र कौरव के माध्यम से चुनौती दी थी। इन जन-हित याचिकाओं की परिणति उनमें आये आदेशों / निर्णयों के परिणाम-स्वरूप निजी मेडिकल कालेजों की सीटों को प्रभावित करते अनेक न्यायिक निर्देशों के रूप में हुई।

2007 और उसके आस-पास, एक कानून (‘व्यापम’ के रूप में पढ़ें) बना जिसके माध्यम से एमबीबीएस / पीजी की सभी सीटों को भरने का अधिकार राज्य सरकार को मिला। मामला अभी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस अन्तरिम आदेश के साथ विचाराधीन है कि अन्तिम आदेश के आने तक निजी मेडिकल कॉलेज और सरकार दोनों ही ५०-५०% तक सीटों को भरेंगी। व्यापम के माध्यम से दाखिलों पर नियन्त्रण का प्रयास, प्रतिगामी रूप से, निजी लाभ के लिए इन सीटों को बेचने का प्रतीत होता है। इस तन्त्र को सुविधा-जनक बनाने के लिए राज्य सरकार ने अधिवक्ता श्री पुरुषेन्द्र कौरव को यथोचित रूप से पुरस्कृत कर पहले राज्य के उप महा-अधिवक्ता के रूप में नियुक्त किया और बाद में प्रोन्नत करके अतिरिक्त महा-अधिवक्ता बना दिया।

जैसे ही मेडिकल सीटों में प्रारम्भिक घोटाले की खबर सामने आयी एक जन-हित याचिका दाखिल हुई जिसमें माननीय उच्च न्यायालय की निगरानी में सीबीआई जाँच की माँग की गयी। इस जन-हित याचिका में व्यावसायिक परीक्षा मण्डडल (व्यापम), विशेष कार्य बल (एसटीएफ) और सरकार की ओर से पुरुषेन्द्र कौरव (आरोपी) उपस्थित हुए। पुरुषेन्द्र कौरव अनेक वर्षों से व्यापम के एक स्थायी वकील की तरह हो गये हैं। इसके अलावा, राज्य के अतिरिक्त महा-अधिवक्ता पुरुषेन्द्र कौरव के एबीवीपी के साथ-साथ आरएसएस तथा भाजपा के सदस्यों से भी सक्रिय सम्बन्ध हैं।

इस प्रकार, जाँच की विषय-वस्तु से हितों से निहायत स्पष्ट टकराव के बाद भी एसटीएफ ने प्रस्तुत प्रकरण में अपने मार्ग-दर्शन, प्रकरण के संचालन और प्रकरण में अपना पक्ष रखने के लिए श्री पुरुषेन्द्र कौरव को नियुक्त किया। पूरी जाँच और जाँच की दिशा श्री कौरव के माध्यम से आरोपी व्यक्तियों को ज्ञात होती है। तकनीकी शिक्षा के कैबिनेट मंत्री श्री लक्ष्मीकांत शर्मा, व्यापम के परीक्षा-नियंत्रक श्री पंकज त्रिवेदी, प्रधान सिस्टम एनालिस्ट श्री नितिन महिंद्रा, वरिष्ठ सिस्टम एनालिस्ट अजय सेन इत्यादि के अलावा खनन दिग्गज श्री सुधीर शर्मा जैसे टीम के प्रमुख खिलाड़ियों से उनके सम्बन्ध और निकटता जग-जाहिर हैं। एक निष्पक्ष जाँच मिले हुए एक अभियोजक द्वारा कैसे संचालित की जा सकती है?

व्यथा तो यह है कि एक ओर गरीब छात्र (जो शिकार हैं) और उनके माता-पिता ने एसटीएफ द्वारा देर रात को की गयी गिरफ्तारियों की कठिनाइयों का सामना किया है तो दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी / आरएसएस से सम्बन्धित आरोपी बिना किसी भय के स्वतन्त्र रूप से घूम रहे हैं। एसटीएफ का एक विशेष अधिकारी भी जबलपुर में भाजपा के राजनीतिक नेताओं से सम्बन्धित है। जाँच की प्रक्रिया में स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच से संरक्षण और समझौते के एक और घोटाले की बू आती है। इसके अलावा, यह उन सिद्धान्तों को त्याग देना भी है जो माननीय उच्चतम न्यायालय ने एच एस सभरवाल बनाम म० प्र० राज्य एवं अन्य मामले में निर्धारित किये हैं। सन्दर्भ की सुविधा के लिए प्रासंगिक हिस्सा यहाँ उद्धरित है —

“…वह अभियोजक जो निष्पक्ष कार्य नहीं करता है और ज्यादा-तर बचाव पक्ष के एक वकील की तरह ही कार्य करता है निष्पक्ष न्यायिक प्रणाली के लिए एक बोझ है, और न्यायालय ऐसी अभियोजन एजेन्सी के हाथों का खिलौना नहीं बन सकते हैं जो या तो उदासीनता दिखला रही हो अथवा पूरी तरह से दुराव का रवैया अपना रही हो।”

हलांकि बड़े पैमाने पर आम जनता उक्त तथ्यों से परिचित है और इसलिए उच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं के बीच भी इसे जाना जाता है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि परोक्ष उद्देश्य से इसे माननीय उच्च न्यायालय के ज्ञान में नहीं लाया गया है। यदि श्री बी डी शर्मा (अभाविप / आरएसएस के बड़े नेता और श्री कौरव के एक करीबी सहयोगी) की टेलीफोन-बातचीत और एसएमएस तथा श्री कौरव की 2006 से लगा कर आज तक की टेलीफोन-बातचीत और एसएमएस का ब्यौरा तलब किया जाये तो इससे यह प्रकट होगा कि परस्पर विरोधी हितों में रुचि रखने वाले व्यक्ति, माननीय न्याय-मूर्तियों को अन्धेरे में रखते हुए, किस तरह अन्वेषण व न्यायिक प्रक्रिया को नियन्त्रित कर रहे हैं।

मुझे आशा और विश्वास है कि जन-हित के साथ ही न्याय-हित में भी इस पत्र-याचिका के माध्यम से व्यक्त की गयी मेरी आशंकाओं तथा चिन्ताओं को रिकॉर्ड पर लिया जायेगा। राजनैतिक जीवन के अपने लम्बे अन्तराल तथा मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री के रूप में दो लगातार कार्य-काल गुजारने वाले व्यक्ति के रूप में उन सभी सुस्पष्ट तथ्यों को रिकॉर्ड पर लाने को मैं अपनी बन्धन-कारी जिम्मेदारी तथा म० प्र० की उच्चतम्‌ न्याय-व्यवस्था के प्रति अपना दायित्व मानता हूँ जो देश के सबसे बड़े प्रवेश / नियुक्ति घोटलों में से एक की स्वतन्त्र व निष्पक्ष जाँच को विपरीत रूप से प्रभावित कर हानि पहुँचा रहे हैं और इस तरह से सदियों-पुरानी हमारी न्याय-शास्त्रीय निष्पक्षता के प्रति अनादर का भाव उत्पन्न कर रहे हैं।

जनता, विशेष रूप से म० प्र० के छात्रों, को न्याय दिलाने की मेरी इस माँग को कृपया जन-हित के साथ-साथ एक ऐसे घोटाले की स्वतन्त्र व निष्पक्ष अन्वेषण की पवित्रता के हित में स्वीकार करें जिसके आयाम उजागर होने अभी शेष हैं।

न्याय के हित में माननीय न्याय-मूर्ति निम्नलिखित प्रार्थनाओं पर विचार कर सकते हैं :-

(1) एक स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करने के लिए पूरी जाँच नए सिरे से सीबीआई को सौंपना; और / या

(2) उच्च-पदस्थ व्यक्तियों तथा अन्तर्राज्यीय विस्तार के खुलासे को संरक्षित करने के लिए आन्वेषण और सबूतों से छेड़-छाड़ करने की पर्याप्त क्षमता रखने वाली वर्तमान जाँच के अभिलेखों की देख-रेख, निगरानी और जाँच-पड़ताल के लिए, अधिमानतः राज्य के बाहर से, न्याय-पालिका और पुलिस के प्रतिष्ठित रहे (सेवा-निवृत्त) सदस्यों की एक एसआईटी का गठन करना; और / या

(3) निर्देश देना कि म० प्र० के पुलिस महा-निदेशक द्वारा आरएसएस कार्य-कर्ताओं, भाजपा के सदस्यों और अन्य को क्लीन चिट का दिया जाना माननीय न्यायालय की निगरानी के तहत एसटीएफ द्वारा स्वतन्त्र और निष्पक्ष जाँच में हस्तक्षेप किया जाना माना जायेगा।…”

स्पष्ट है कि दिग्विजय सिंह के इस पत्र को पत्र-याचिका मानते हुए उसे विचारार्थ सुनवाई के लिए ले लिये जाने से दो सम्भावनाएँ प्रबल हो गयी हैं —

(1) लोक सभा चुनावों में बुरी तरह से पिटी कांग्रेस और हाशिये पर जा पहुँचे उसके नेता, नया राजनैतिक जीवन पाने की आस में, भाजपा नेतृत्व पर वैयक्तिक आरोपों की बौछार तेज कर दें। ऐसे में, संदिग्ध आचार-व्यवहार की पोल खोलती वे सीडी भी सामने आ सकती हैं जो उन्होंने ‘ताकि वक्त पड़े काम आये’ के नाम पर लम्बे समय से सहेज रखी हैं; और

(2) जाँच के दायरे को जान-बूझ कर सँकरा कर देने के एसआईटी पर दिग्विजय सिंह द्वारा लगाये गये आरोप को न्यायालय की सह-मति मिल जाये और जाँच के दायरे में आये इस परिवर्तन से शीघ्र ही कुछ ठोस परिणाम भी निकलें।

यों, पत्र में सरकारी तन्त्र पर बहुत गम्भीर प्रश्न हैं किन्तु न्यायालय की उँगली स्वयं दिग्विजय पर भी उठ सकती है। कारण भी स्पष्ट है — अपने पक्ष को बल देने के सम्भावित अतिरेक में उन्होंने अपनी दूसरी प्रार्थना में एसआईटी में न्याय-पालिका के ‘राज्य के बाहर से रहे’ सेवा-निवृत्त सदस्यों की नियुक्ति की माँग भी रख दी है। यह एक ऐसी माँग है जो, परोक्ष रूप से ही सही, राज्य से रहे न्याय-पालिका के समूचे सम्माननीय सदस्यों की न्यायिक शुचिता और निष्पक्षता को सन्देह के घेरे में खड़ा कर देती है। वह भी, बिना किसी ठोस प्रमाण के।

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