अर्थशास्त्र की सहायक प्राध्यापिका डॉ० सुषमा तिवारी ने अपना एक आलेख हमें भेजा है। विषय-वस्तु की सर्व-कालीन सम-सामयिकता के कारण ही, 29-30 अक्टूबर 2013 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सौजन्य में सीहोर में हुई राष्ट्रीय शोध-संगोष्ठी की रपट में प्रकाशित हो चुके इस आलेख को मैं (किंचित् सम्पादन के साथ) यहाँ स्थान दे रहा हूँ।
सुषमा तिवारी लिखती हैं —
“खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के पक्ष में दिये जाने वाले तर्क पूरी तरह सही नहीं हैं। ये तर्क केवल आधी सचाईयों का ही बखान करते हैं। भारत में निवेश को आतुर वैश्विक बाजार के बड़े खिलाड़ियों के दबाव में खुदरा बाजार में FDI लागू करने के निर्णय की समीक्षा करते हुए सावधानी-पूर्वक इस पर भी गौर करना होगा कि इसके नुकसानों को न्यूनतम् बनाये रखने के लिए गुणवत्ता नियंत्रक संस्थानों की मजबूती और उनके नये कलेवर पर तत्काल ध्यान देना आवश्यक हो गया है। साथ ही, इस कड़वी सचाई को भी समझना होगा कि विदेशी कम्पनियाँ भारत में भारी मात्रा में निवेश तो करेंगी किन्तु उनका प्रयास घरेलू स्पर्धा को दबाने का ही होगा जिससे घरेलू बचत और निवेश दरों पर केवल प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।”
देश के खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ़डीआई) को स्वीकृति यूपीए सरकार ने दिसम्बर 2012 में कानून बना कर दी। इस स्वीकृति से सिंगल ब्राण्ड में 100% तथा मल्टी ब्राण्ड में 51% एफ़डीआई निवेश सम्भव हुआ।

विपक्ष में बैठ कर एफ़डीआई का पुर-जोर विरोध करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अपने ही बूते पर बहुमत पाया और एनडीए की सरकार बनायी तब अपेक्षा की जा रही थी कि वह यूपीए द्वारा लिखी गयी एफ़डीआई सोच की इबारत के कुछ न कुछ हिस्सों को अवश्य ही मिटायेगी। किन्तु, इसके उलट, उसने एफ़डीआई के पंखों को अधिक ऊँची उड़ान भरने की छूट दे दी है। उसके इस कदम से बहस लम्बी भी हो गयी है और गहरी भी। इसीलिए, आम आदमी की समझ के लिए, इसे खुदरा बाजार में एफ़डीआई के नुकसानों तक ही रखना ठीक प्रतीत हो रहा है। खुदरा बाजार में एफ़डीआई के नुकसानों की समझ, स्वत: ही, अन्य क्षेत्रों में राष्ट्रीय हितों को एफ़डीआई से होने वाली गम्भीर क्षतियों की समझ का आधार बनेगी।
भारत में कृषि के बाद सबसे अधिक रोजगार खुदरा बाजार ही देता है। हमारे देश में खुदरा बाजार लगभग २८ लाख करोड़ रुपयों का है जिससे लगभग 20 करोड़ भारतीयों की अजीविका चल रही है। नेशनल सैम्पल सर्वे 2009-10 के अनुसार देश में खुदरा व्यवसाय की 1.20 करोड़ दुकानें हैं और इनसे 4 करोड़ व्यक्ति रोजगार पाते हैं।
देश के कुल सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) में खुदरा व्यापार का योगदान 14% है जिसमें संगठित व्यवसाय की हिस्सेदारी केवल 2% ही है। देश का शेष 98% खुदरा व्यापार असंगठित ही है।
खुदरा क्षेत्र में एफ़डीआई के पक्ष में निम्न तर्क दिये जा रहे हैं —
1. इससे 3 वर्षों में 1 करोड़ रोजगार सृजित होंगे;
2. इससे किसानों को उत्पादों के अच्छे दाम मिलेंगे;
3. विदेशी कम्पनियाँ भारत के खुदरा व्यापार में भारी आर्थिक निवेश करेंगी जिससे भारतीय अर्थ-व्यवस्था को गति मिलेगी;
4. खाद्य पदार्थों की कीमतें गिरेंगी जिससे उपभोक्ताओं को लाभ मिलेगा;
5. विदेशी निवेशक कोल्ड स्टोरेज की श्रृंखला स्थापित करेंगे जिससे फल, सब्जी और अन्य शीघ्र नष्ट होने वाले देशी उत्पादों का संरक्षण होगा;
6. सड़कों की दशा सुधरेगी;
7. सरकार को कर-आय के रूप में बड़ी धन-राशि प्राप्त होगी;
खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए दिये गये उपर्युक्त तर्क पूरी तरह सही नहीं हैं। ये तर्क केवल आधी सचाईयों का ही बखान करते हैं। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के विरोध में दिये जा रहे निम्न तर्कों को ध्यान-पूर्वक देखें तो वस्तु-स्थिति स्पष्ट हो जायेगी —
1. खुदरा क्षेत्र में एफ़डीआई के आने से 3 वर्षों में 1 करोड़ रोजगार की वृद्धि होगी यह बात सचाई से परे है क्योंकि, वैब पत्रिका एटलाण्टिसिटीज में छपे एक लेख के अनुसार, वालमार्ट ने शिकागो में 2006 में कारोबार आरम्भ किया और 2008 तक उसे अपनी कुल 306 दुकानों में से 82 बन्द कर देना पड़ीं।
एक अन्य सर्वे के अनुसार वालमार्ट वाले इलाकों में पहले से चले आ रहे छोटे कारोबारों के बन्द होने की दर 30% से 35% तक रही है। वालमार्ट के स्टोरों के डेढ़ किलोमीटर के दायरे में स्थित कैमिस्ट शॉपों के बन्द होने की दर 20% पायी गयी। जबकि, गृह-सज्जा की दुकानों के लिए यह दर 15%, हार्डवेयर के मामले में 18% और खिलौनों की दुकानों में 25% आँकी गयी;
2. सरकार द्वारा घोषित की गयी नयी रिटेल नीति के निर्देशों के अनुसार बाहरी कम्पनियाँ अपनी जरूरत का 30०% हिस्सा देशी किसानों/उत्पादकों से खरीदेंगे। कहा जा रहा है कि रिटेल की सरकारी नीति से किसानों को अपने उत्पादों के अच्छे मूल्य मिलेंगे। किन्तु, वहीं दूसरी ओर, विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के प्रावधानों के अनुसार सरकार इन कम्पनियों पर ऐसा कोई नियन्त्रण लागू कर ही नहीं सकती है। 1994 के उसके जनरल एग्रीमेण्ट ऑन टैरिफ़ एण्ड ट्रेड (गैट) प्रस्ताव की धारा-2 के अन्तर्गत् विदेशी कम्पनियाँ अपना माल स्वेच्छा से खरीदने के लिए पूरी तरह स्वतन्त्र होंगी और, इसलिए, यदि सरकार ऐसा कोई नियंत्रण थोपती है तो डब्लूटीओ, जब चाहे, हस्तक्षेप कर भारत में निवेश को प्रतिबन्धित कर सकता है।
यहाँ यह सचाई भी ध्यान देने योग्य है कि वालमार्ट द्वारा कारोबार आरम्भ किये जाने के बाद अमेरिका और यूरोप के किसानों की आय बढ़ने के स्थान पर 40% तक कम हुई है। तब ऐसी स्थिति में, जबकि भारत में औसत जोत का आकार 1 हैक्टेयर से भी कम है, एफ़डीआई से बहु-संख्य छोटे किसानों को कोई लाभ नहीं होगा। एफ़डीआई से यदि सच में ही कोई लाभ होगा भी तो वह केवल पहले से सम्पन्न किसानों को ही होगा;
3. विदेशी कम्पनियाँ भारत में भारी मात्रा में निवेश करेंगी किन्तु उनका प्रयास घरेलू स्पर्धा को दबाने का ही होगा जिससे घरेलू बचत और निवेश-दरों पर केवल प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। अनुभव बतलाते हैं कि विदेशी निवेशकों ने भारत जैसे विकासशील देशों से भारी भरकम लाभ तो कमाया किन्तु उसका पुनर्निवेश स्थानीय रूप से नहीं किया। उसका लाभ वे देश के बाहर ले गये;
4. खाद्य पदार्थों की कीमतें गिरने एवं उपभोक्ताओं को लाभ होने जैसी बातें भी शिकार को फाँसने के लिए लगाये जाने वाले लुभावने जाल भर हैं। हमारे देश के खुदरा व्यापारी 10 ग्राम से ले कर 10 किलो से ऊपर तक की चीजें तौल कर देते हैं लेकिन रिटेल स्टोर्स पर यही वस्तुएँ, ‘गुणवत्ता पूर्ण वस्तु’ के नाम पर और ‘बड़े पैक’ में, मँहगे दामों पर दी जाती हैं। इससे आम उपभोक्ता ठगा हुआ महसूस करता है;
5. कोल्ड स्टोरेज की श्रृंखला स्थापित करने तथा बेहतर सड़कों का निर्माण करने की जिम्मेदारी भारत सरकार को (जो खेलों जैसे आयोजनों में करोड़ों का खर्च करती है) दृढ़ इच्छा शक्ति रख कर स्वयं ही करना चाहिये। ऐसा होने पर, बिना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लागू किये, वह 30% से 40% तक फल-सब्जी को खराब होने से स्वयं ही बचा सकती है;
6. जहाँ तक इस तर्क की बात है कि सरकार को कर-आय के रूप में बड़ी धन राशि प्राप्त होगी, इसकी सचाई यह है कि अभी तक भारत में हुए कुल एफ़डीआई का 38% मॉरीशस से आया है और, मॉरीशस व भारत के बीच हुई कर-संधि में स्वीकृत शर्तों के कारण, मॉरीशस के माध्यम से विदेशी निवेश किये जाने पर भारत में देय कर की कुल वास्तविक राशि में बचत की छूट मिलती है। वह इसलिए कि, संधि में दी गयी रियायतों के अनुसार, विदेशी निवेश होने की स्थिति में, कर दोनों देशों में से किसी में भी अदा किया जा सकता है और, क्योंकि मॉरीशस में कर की दर नीची है, अधिकांश मामलों में कर का भुगतान मॉरीशस में ही किया जाता है। स्पष्ट है कि, क्योंकि विदेशी निवेशक मॉरीशस के माध्यम से ही भारत में निवेश कर रहे हैं, भारत में होने वाली कर-आय के वास्तविक आँकड़े कर-आय के बतलाये जा रहे अनुमान से पर्याप्त छोटे हो जायेंगे;
7. एफ़डीआई के पक्ष में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि क्योंकि किसानों और छोटे उद्योगों से सीधे ही माल खरीदा जायेगा इससे बिचौलियों की समाप्ति होगी और किसानों तथा छोटे उद्योगों को लाभ होगा। यह भी, महज भ्रमित करने के लिए फैलाया जाने वाला, आधा सच ही है क्योंकि बीते दिनों के दलालों की जगह नये जमाने के निगम ले लेंगे। यही नहीं, गुणवत्ता-निरीक्षक और माल-निरीक्षक आदि भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में आ जायेंगे। यह सभी विदेशी पूँजी बाजार और भारतीय कृषकों/उद्योगों के बीच की कड़ी होंगे जो प्रकारान्तर से नये जमाने के दलाल ही साबित होंगे।
खुदरा व्यापार में एफ़डीआई को, वह जैसा भी है उसी रूप में, अभी देश के केवल कुछ राज्यों में ही लागू किया गया है। लेकिन यदि इसे देश के अन्य राज्यों में भी लागू करना है तो सबसे पहले उपर्युक्त तथ्यों से निकले निष्कर्षों पर तो सावधानी-पूर्वक गौर करना ही होगा साथ ही निर्णय की समीक्षा करते हुए सावधानी-पूर्वक इस पर भी गौर करना होगा कि इसके नुकसानों को न्यूनतम् बनाये रखने के लिए गुणवत्ता नियंत्रक संस्थानों की मजबूती और नये कलेवर पर तत्काल ध्यान देना आवश्यक हो गया है।
हमें समझना होगा कि यद्यपि हमारे पड़ोसी और सबसे प्रमुख प्रतिस्पर्धी चीन में ही नहीं सऊदी अरब, कुवैत, और संयुक्त अरब अमीरात आदि में भी एफ़डीआई की अनुमति तो है किन्तु इन देशों में व्यापार-शर्तों के अन्तर्गत् गुणवत्ता अनुबन्ध प्रक्रिया और कीमत से जुड़े स्थानीय मानक इतने कड़े हैं कि वैश्विक कम्पनियाँ इन नियमों का उल्लंघन करने का सोच भी नहीं सकती हैं। लेकिन जैसा कि अर्थ शास्त्री गुन्नार मिर्डल ने ‘एशियन ड्रामा’ में लिखा है, “भारत में राज्य इतना सॉफ़्ट है कि कानून और व्यक्ति की टक्कर में कानून की धज्जियाँ उड़ती हैं।” फिर, एफ़डीआई के मामले में तो, मुकाबला बहु-राष्ट्रीय कम्पनियों (एमएनसी) से है। कहीं ऐसा न हो कि ये हमारे घरेलू संसाधनों का मन-चाहा दोहन करके लाभ कमायें और देश को बे-रोजगारी के गर्त में ढकेल दें।
नोम चोमस्की ने 1995 में मुम्बई में कहा भी है, “समुद्र-पार की इन विशालतम् कम्पनियों की जकड़ बहुत मजबूत होती है। आप इनके पार्टनर होने का थोथा दम्भ भले ही भरें परन्तु, अन्तत:, ये आपको निगल ही जाती हैं।”