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चार दशक बाद पुराने टाइगर कॉरीडोर से गुजरे वनराज

अरुण सिंह, पन्ना.

कथाओं से भरे इस देश में एक कथा बाघ भी है। आज बाघों को अखबारों में छपने के लिए जगह तो खूब मिल रही है लेकिन छिपने के लिए ओट नहीं मिलती। वनों के प्रबंध में जनता की भागीदारी न होने से इंसान और वन्य जीवों के बीच संघर्ष बढ़ते जा रहे हैं। ऐसे में बाघों की आवाजाही का सदियों पुराना रास्ता (टाइगर कारीडोर) फिर से बनाने में पन्ना के एक प्रतिष्ठित परिवार ने एक बार फिर से ऐसी पहल की है, जिससे फिर से घना जंगल तैयार हो गया है। खुशी यह भी है कि, इस कारीडोर से बाघों ने गुजरना भी शुरु कर दिया है।

पांच साल पहले तक होती थी यहां पर सिंचित खेती
पांच साल पहले तक होती थी यहां पर सिंचित खेती
पुराने टाइगर कारीडोर को विकसित करने अनूठी पहल 

ढाई सौ एकड़ उपजाऊ कृषि भूमि में तैयार कराया जंगल 


पर्यावरण संरक्षण के साथ ही हो रही लाखों की कमाई भी


बुन्देलखण्ड क्षेत्र के पन्ना जिले में पर्यावरण संरक्षण और विकास को लेकर विगत लम्बे समय से तीखी बहश व तनातनी चली आ रही है। इसका परिणाम यह हुआ कि इस जिले की भौगोलिक स्थिति व विशाल वन क्षेत्र को देखते हुए यहां का औद्योगिक विकास तो हो नहीं सका लेकिन नैसर्गिक विकास की जो संभावनायें थीं वे भी फलीभूत नहीं हो सकीं। ऐसे समय पर पन्ना शहर के एक बेहद प्रतिष्ठित और सुशिक्षित परिवार ने जिला वासियों को नई राह दिखाई है। कुंवर केशव प्रताप सिंह तथा उकनी पत्नी श्रीमती दिव्यारानी सिंह ने पर्यावरण संरक्षण व विकास के बीच तालमेल बैठाते हुए अपनी उपजाऊ कृषि भूमि में प्लान्टेशन कराने का निर्णय लिया। अब तक तकरीबन ढाई सौ एकड़ भूमि में क्लोन प्रजाति के यूकेलिप्टस लगवाये हैं, फलस्वरूप इस भूमि में घने जंगल जैसा दृश्य नजर आने लगा है। केशव प्रताप सिंह के मुताबिक इस पहल से जहां पर्यावरण में सुधार व पर्यावरण का संरक्षण होगा वहीं कृषि उत्पादन के ही समतुल्य यूकेलिप्टस के इस जंगल से मोटी आय भी होगी।

खेत में तैयार जंगल के बीच में खड़े केशव प्रताप सिंह व श्रीमती दिव्यारानी
खेत में तैयार जंगल में केशव प्रताप सिंह व श्रीमती दिव्यारानी
पर्यावरण एवं वन्य जीवों पर खासी रूचि रखने वाले केशव प्रताप सिंह ने बताया कि उन्हें अपने बड़े बुजुर्गों तथा पन्ना टाइगर रिजर्व के क्षेत्र संचालक आर श्रीनिवास मूर्ति से यह पता चला कि दशकों पूर्व पन्ना से बांधवगढ़ तक जंगल का भरा पूरा गलियारा था, जहां से होकर बाघों का आना जाना होता रहता था। लेकिन आबादी बढन के साथ-साथ तेजी से जंगल कटने पर बाघों का यह पुराना गलियारा (कारीडोर) नष्ट हो गया। जिसके चलते बाघों का नैसर्गिक जीवन प्रभावित हुआ और यहां के जंगलों से बाघ विलुप्त हो गये। आपका कहना है कि बाघों को सुरक्षा व संरक्षण के साथ - साथ उसे पूरे तंत्र को भी बचाया जाना जरूरी है, जहां बाघों को जीवन के अनुकूल जगह मिल सके। यह बात हमारे जेहन में जब आई तो हमने यह तय किया कि किसी भी तरह दशकों पुराने बाघ कारीडोर को फिर विकसित किया जाए। इस काम में दूसरे लोग आगे आयें, इससे पूर्व शुरूआत हमने की और उसके बड़े ही सार्थक व उत्साह जनक परिणाम भी आने लगे हैं। केन नदी के किनारे कृषि भूमि में घना जंगल तैयार होने से अन्य दूसरे लोग भी पौध रोपण करने के लिए प्रेरित हुए हैं जिससे कारीडोर विकसित किये जाने के प्रयासों को बल मिला है। केशव प्रताप सिंह बताते हैं कि श्यामेन्द्र सिंह बिन्नी राजा, शेखर व हेमराज से भी उन्हें टाइगर कारीडोर के बारे में जानकारी मिली। फलस्वरूप तीन-चार साल पूर्व तक जहां एक भी पेड़ नहीं थे वहां अब जंगल लहलहाने लगा है।

 
सदियों पुराने कारीडोर से होकर गुजरता बाघ पन्ना 212
सदियों पुराने कारीडोर से होकर गुजरता बाघ पन्ना 212

बाघ पन्ना 212 ने भी की थी यह खोज
पन्ना टाइगर रिजर्व के युवा बाघ पी-212 ने भी पन्ना-बांधवगढ़ तथा संजय टाइगर रिजर्व के खोये हुए पुराने कारीडोर को खोज निकालने में सफलता हासिल की थी। इसी वर्ष मार्च के महीने में इस बाघ ने तमाम तरह की कठिनाइयों और चुनौतियों का सामना करते हुए केन से सोन तक का लम्बा फासला तय किया और अपने नये ठिकाने तक जा पहुंचा। अपनी इस यात्रा के दौरान पी - 212 ने यह सीख भी दी कि मानव जीवने के लिए प्रकृति के साथ संतुलन बेहद जरूरी है। राजाशाही जमाने में प्रतिष्ठित शिकारी रहे 95 वर्षीय लक्ष्मण सिंह महोड़ बताते हैं कि पाण्डव वन से लेकर कल्दा पहाड़ तक अच्छा जंगल था, यहां से होकर हमेशा बाघ व तेंदुआ गुजरते रहे हैं। बाघों का यह सदियों पुराना रास्ता है जिसे फिर से विकसित किये जाने के प्रयास निश्चित रूप से सराहनीय है।

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