मुंबई।
लोकसभा चुनाव-2019 में ऐतिहासिक विजय के बाद नरेंद्र मोदी फिल्मी परदे पर भी कीर्तिमान रचने की तैयारी में हैं। बात हो रही है नरेंद्र मोदी की बायोपिक की, जिसमें विवेक ओबेराय ने शानदार अभिनय किया है। इस फिल्म को चुनाव के दौरान आपत्तियों के चलते पहले सेंसर बोर्ड और बाद में चुनाव आयोग ने प्रदर्शित करने से रोक दिया था। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक गए निर्माता निर्देशकों ने बाद में रिलीज टाल दी और चुनाव नतीजों के बाद ही शो करने का फैसला किया। वहीं माना जा रहा है कि फिल्म फेडरेशन आॅफ इंडिया ने इसे अगर आॅस्कर में भारत की प्रतिनिधि फिल्म बनाकर भेजा तो वहां भी ये फिल्म कमाल दिखा सकती है।
फिल्म नरेन्द्र मोदी की रिलीज के पहले ही मिला जबर्दस्त रिस्पांस
कमाई के बेहतर आसार देखते हुए वितरकों ने हाथों-हाथ लिया गौरतलब है कि हिंदी सिनेमा में बायोपिक का चलन ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी और वी शांताराम निर्देशित डॉ. कोटनीस की अमर कहानी (1946) के दिनों से चला आ रहा है। बायोपिक और डॉक्यूमेंट्री का मूल फर्क यही है कि बायोपिक किसी भी इंसान के गुण या दोष के आधार पर बनी फिल्म होती है। यह निर्देशक और निर्माता पर निर्भर करता है कि वह फिल्म में संबंधित शख्सियत के किस पहलू को उजागर करता है। दर्शक भी यही मानकर फिल्म देखने जाता है कि यह निर्देशक का किसी शख्सीयत को देखने का उसका अपना नजरिया है। यही वजह है कि पिछले साल रिलीज हुई संजू देश में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली तीसरे नंबर की भारतीय फिल्म बनी। अब बारी पीएम नरेन्द्र मोदी की है।
फिल्म पीएम नरेन्द्र मोदी एक ऐसे शख्स की गुणगाथा है जिसने बचपन मुफलिसी में गुजारा, जवानी में ही मां का आशीर्वाद लेकर संन्यासी बन गया, गुरु के कहने पर बस्ती में लौटा और अपनी ही पार्टी की अंदरूनी सियासत से जूझकर जननायक बना। बाल नरेन्द्र स्टेशन पर चीन सीमा पर जाते फौजियों को जब मुफ्त में चाय पिलाता है, तो ये फिल्म का पहला आधार होता है। फिर वह अपने गुरु को चाकू देते समय इसका दस्ता आगे करता है, तो यह जनहित की दूसरी धुरी बनती है।
गुजरात के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में नहरों की खुदाई का जिम्मा लेकर वह बताता है, वोट के पीछे मत भागो, काम करो, वोट खुद चलकर आएगा। वह गुजरात का पहला किंगमेकर है, जिसकी शोहरत से गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक में हलचल है। ओमंग कुमार ने इसके पहले मैरी कॉम और सरबजीत जैसी बायोपिक्स बनाकर अपना एक फैनबेस तैयार किया है। पीएम नरेन्द्र मोदी इसका विस्तार है। वह सिनेमा बनाते हैं, डॉक्यूमेंट्री नहीं।
दर्शन कुमार को फिर उन्होंने फिल्म में ऐसे उत्प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल किया है जो मोदी को खत्म करने की साजिश रचने वालों का मोहरा है। अपने चैनल का वह जमकर दुरुपयोग भी करता है। ओमंग ने इस फिल्म को रिश्तों की डोर से बांधा है, ये रिश्ते मोदी-शाह के रिश्तों को जय वीरू और सचिन सहवाग जैसा रिश्ता बताते हैं। ये भी बताते हैं कि बच्चों को विवेकानंद का साहित्य पढ़ने की सीख देने वाले माता-पिता को तब क्या करना चाहिए, जब उनका अपना बच्चा विवेकानंद जैसा बनने की ठान ले।
मां इस फिल्म की सबसे मजबूत धुरी है। वह हर उस घड़ी में फिल्म को नया मोड़ देती है जब नरेन्द्र मोदी के मन में विचारों का तूफान उठता है। विवेक ओबेरॉय को नरेन्द्र मोदी के तौर पर स्वीकार करने में थोड़ा वक्त लगता है। लेकिन, ये बस उतनी ही देर तक है जितनी देर फिल्म गांधी में बेन किंगस्ले को मोहनदास के तौर पर स्वीकारने में लगता है। बस यहां कस्तूरबा नहीं हैं। इसके बाद विवेक ओबेरॉय ने नरेन्द्र मोदी के तिलिस्म को परदे पर जीवंत कर दिया है। खासतौर से लाइव इंटरव्यू में मोदी बने विवेक ओबेरॉय की अदाकारी तालियों का हकदार बनती है। मां के रूप में जरीना वहाब, शाह के रूप में मनोज जोशी और टीवी पत्रकार के रूप में दर्शन कुमार ने दमदार काम किया है और फिल्म को मजबूत बनाया है।
फिल्म तकनीकी तौर पर भी बहुत उम्दा है। सुनीता राडिया ने एक सियासी बायोपिक के लिए कैमरा घुमाते समय कहीं भी कुछ भी छूटने नहीं दिया है। फिल्म की पटकथा और संवाद में हर्ष लिम्बाचिया और अनिरुद्ध चावला के साथ खुद विवेक ओबेरॉय ने भी योगदान किया है। फिल्म में गाने ज्यादा नहीं हैं, लेकिन जहां भी हैं, वह फिल्म को क्लाइमेक्स की तरफ ले जाने में मदद करते हैं।
फिल्म मोदी को चाहने वालों को तो पसंद आएगी ही, उन लोगों को ज्यादा पसंद आएगी जो मोदी को नापसंद करते हैं। चुनाव आयोग की ये दलील भी फिल्म देखने के बाद ठीक ही लगती है कि ये फिल्म मतदाताओं को प्रभावित कर सकती थी। फिल्म सिर्फ बीजेपी समथर्कों को ही नहीं बल्कि एक आम सिने दर्शक को भी प्रभावित करती है। ये एक प्रेरणादायक फिल्म है और दिन में 18 घंटे मेहनत करने वालों का काम के प्रति समर्पण का विश्वास मजबूत करती है।
लोकसभा चुनाव-2019 में ऐतिहासिक विजय के बाद नरेंद्र मोदी फिल्मी परदे पर भी कीर्तिमान रचने की तैयारी में हैं। बात हो रही है नरेंद्र मोदी की बायोपिक की, जिसमें विवेक ओबेराय ने शानदार अभिनय किया है। इस फिल्म को चुनाव के दौरान आपत्तियों के चलते पहले सेंसर बोर्ड और बाद में चुनाव आयोग ने प्रदर्शित करने से रोक दिया था। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक गए निर्माता निर्देशकों ने बाद में रिलीज टाल दी और चुनाव नतीजों के बाद ही शो करने का फैसला किया। वहीं माना जा रहा है कि फिल्म फेडरेशन आॅफ इंडिया ने इसे अगर आॅस्कर में भारत की प्रतिनिधि फिल्म बनाकर भेजा तो वहां भी ये फिल्म कमाल दिखा सकती है।
फिल्म नरेन्द्र मोदी की रिलीज के पहले ही मिला जबर्दस्त रिस्पांस
कमाई के बेहतर आसार देखते हुए वितरकों ने हाथों-हाथ लिया गौरतलब है कि हिंदी सिनेमा में बायोपिक का चलन ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी और वी शांताराम निर्देशित डॉ. कोटनीस की अमर कहानी (1946) के दिनों से चला आ रहा है। बायोपिक और डॉक्यूमेंट्री का मूल फर्क यही है कि बायोपिक किसी भी इंसान के गुण या दोष के आधार पर बनी फिल्म होती है। यह निर्देशक और निर्माता पर निर्भर करता है कि वह फिल्म में संबंधित शख्सियत के किस पहलू को उजागर करता है। दर्शक भी यही मानकर फिल्म देखने जाता है कि यह निर्देशक का किसी शख्सीयत को देखने का उसका अपना नजरिया है। यही वजह है कि पिछले साल रिलीज हुई संजू देश में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली तीसरे नंबर की भारतीय फिल्म बनी। अब बारी पीएम नरेन्द्र मोदी की है।
फिल्म पीएम नरेन्द्र मोदी एक ऐसे शख्स की गुणगाथा है जिसने बचपन मुफलिसी में गुजारा, जवानी में ही मां का आशीर्वाद लेकर संन्यासी बन गया, गुरु के कहने पर बस्ती में लौटा और अपनी ही पार्टी की अंदरूनी सियासत से जूझकर जननायक बना। बाल नरेन्द्र स्टेशन पर चीन सीमा पर जाते फौजियों को जब मुफ्त में चाय पिलाता है, तो ये फिल्म का पहला आधार होता है। फिर वह अपने गुरु को चाकू देते समय इसका दस्ता आगे करता है, तो यह जनहित की दूसरी धुरी बनती है।
गुजरात के सूखा प्रभावित क्षेत्रों में नहरों की खुदाई का जिम्मा लेकर वह बताता है, वोट के पीछे मत भागो, काम करो, वोट खुद चलकर आएगा। वह गुजरात का पहला किंगमेकर है, जिसकी शोहरत से गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक में हलचल है। ओमंग कुमार ने इसके पहले मैरी कॉम और सरबजीत जैसी बायोपिक्स बनाकर अपना एक फैनबेस तैयार किया है। पीएम नरेन्द्र मोदी इसका विस्तार है। वह सिनेमा बनाते हैं, डॉक्यूमेंट्री नहीं।
दर्शन कुमार को फिर उन्होंने फिल्म में ऐसे उत्प्रेरक के तौर पर इस्तेमाल किया है जो मोदी को खत्म करने की साजिश रचने वालों का मोहरा है। अपने चैनल का वह जमकर दुरुपयोग भी करता है। ओमंग ने इस फिल्म को रिश्तों की डोर से बांधा है, ये रिश्ते मोदी-शाह के रिश्तों को जय वीरू और सचिन सहवाग जैसा रिश्ता बताते हैं। ये भी बताते हैं कि बच्चों को विवेकानंद का साहित्य पढ़ने की सीख देने वाले माता-पिता को तब क्या करना चाहिए, जब उनका अपना बच्चा विवेकानंद जैसा बनने की ठान ले।
मां इस फिल्म की सबसे मजबूत धुरी है। वह हर उस घड़ी में फिल्म को नया मोड़ देती है जब नरेन्द्र मोदी के मन में विचारों का तूफान उठता है। विवेक ओबेरॉय को नरेन्द्र मोदी के तौर पर स्वीकार करने में थोड़ा वक्त लगता है। लेकिन, ये बस उतनी ही देर तक है जितनी देर फिल्म गांधी में बेन किंगस्ले को मोहनदास के तौर पर स्वीकारने में लगता है। बस यहां कस्तूरबा नहीं हैं। इसके बाद विवेक ओबेरॉय ने नरेन्द्र मोदी के तिलिस्म को परदे पर जीवंत कर दिया है। खासतौर से लाइव इंटरव्यू में मोदी बने विवेक ओबेरॉय की अदाकारी तालियों का हकदार बनती है। मां के रूप में जरीना वहाब, शाह के रूप में मनोज जोशी और टीवी पत्रकार के रूप में दर्शन कुमार ने दमदार काम किया है और फिल्म को मजबूत बनाया है।
फिल्म तकनीकी तौर पर भी बहुत उम्दा है। सुनीता राडिया ने एक सियासी बायोपिक के लिए कैमरा घुमाते समय कहीं भी कुछ भी छूटने नहीं दिया है। फिल्म की पटकथा और संवाद में हर्ष लिम्बाचिया और अनिरुद्ध चावला के साथ खुद विवेक ओबेरॉय ने भी योगदान किया है। फिल्म में गाने ज्यादा नहीं हैं, लेकिन जहां भी हैं, वह फिल्म को क्लाइमेक्स की तरफ ले जाने में मदद करते हैं।
फिल्म मोदी को चाहने वालों को तो पसंद आएगी ही, उन लोगों को ज्यादा पसंद आएगी जो मोदी को नापसंद करते हैं। चुनाव आयोग की ये दलील भी फिल्म देखने के बाद ठीक ही लगती है कि ये फिल्म मतदाताओं को प्रभावित कर सकती थी। फिल्म सिर्फ बीजेपी समथर्कों को ही नहीं बल्कि एक आम सिने दर्शक को भी प्रभावित करती है। ये एक प्रेरणादायक फिल्म है और दिन में 18 घंटे मेहनत करने वालों का काम के प्रति समर्पण का विश्वास मजबूत करती है।

